मतदाता सांप की बीन की तरह वायदों पर कब तक झूमते रहेंगे

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में असली परीक्षा राजनीतिक दलों की नहीं बल्कि मतदाताओं की है। विधानसभा चुनाव में तकरीबन 16 करोड़ मतदाताओं को राजनीतिक दलों की पंचवर्षीय योजना के मूल्यांकन की परीक्षा देनी है। उन्हें साबित करना है कि राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को चुनने का पैमाना कितना विवेकसम्मत और तार्किक है। राजनीतिक दल तरह−तरह के प्रलोभनों की दुकानें सजाए बैठे हैं। हर राजनीतिक दल इस वक्त मतदाताओं का हितेषी नजर आ रहा है। मतदाताओं से लोकलुभावन वायदे किए जा रहे हैं। कोई उन्हें मोबाइल बांट रहा है, तो कोई दूसरी तरह के सब्जबाग दिखा रहा है। प्रत्याशियों के चयन में भी भाई−भतीजावाद चल रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक को भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में कहना पड़ा कि नेता रिश्तेदारों के लिए टिकट दिए जाने का दबाव नहीं बनाएं। सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश के बाद राजनीतिक दलों के नेता अब शायद जाति−धर्म, सम्प्रदाय के नाम पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण नहीं कर पाएं। हालांकि इस बात की पूरी संभावना है कि राजनीतिक दल जीत सुनिश्चित करने के लिए ऐसी बुराईयों का सहारा लिए बगैर बाज नहीं आएंगे।

मौजूदा हालात के बावजूद मतदाताओं को तय करना है कि वे किसे नेता चुनें। विषेश तौर पर मतदाताओं को निर्णायक फैसला राज्य सरकारों के कामकाज को लेकर देना है। प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर मोदी सरकार भी कसौटी पर उतरेगी। सभी दलों के नेता चुनावी माहौल अपने पक्ष में करने के लिए पूरा दम लगा रहे हैं। पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं और फिल्मी सितारों के जरिए मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के प्रयास किए जा रहे हैं। विपक्षी दल मौजूदा सत्तारूढ़ दलों की कमियों को निशाना बना रहे हैं, वहीं सत्तारूढ़ दल मतदाताओं को विपक्षी दलों के पुराने दागदार इतिहास के साथ प्रदेश में किए गए विकास कार्यों को गिना रहे हैं। हर राजनीतिक दल मतदाताओं को प्रदेश और क्षेत्र के विकास का सुनहरा ख्वाब दिखा रहा है। इनके वायदों से लगता यही है यदि सत्ता में आ गए तो समझो कि प्रदेश में चहुं और विकास होने वाला है।

बड़ा सवाल यही है कि क्या मतदाता राजनीतिक दलों के बनाए जाति, धर्म, परिवार के जाल को वोटों की ताकत से काट पाएंगे। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में तो जातिवादी और धर्म की जड़ें लोकतंत्र को लीलने की हद तक जा पहुंची हैं। सुप्रीम कोर्ट के भय से बेशक अब कोई राजनीतिक दल सीधे इस आधार पर वोट मांगने की हिम्मत नहीं दिखा पाए। इसके बावजूद टिकटों का वितरण जाति−धर्म और क्षेत्रवाद के नाम पर किया जा ही रहा है।

ऐेसे में क्या मतदाता चुपचाप तमाशा देखते रहेंगे। मतदाता सभी चुनावी राज्यों में विकास की नई इबारत लिखने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों को पहचान पाएंगे? संकीर्ण सोच से ऊपर उठ कर विवेक सम्मत निर्णय दे पाएंगे? मतदाताओं का पिछला इतिहास देखें तो तस्वीर निराशाजनक ही नजर आती है। इन पांचों ही नहीं देश में हुए दूसरे राज्यों के विधानसभा या दूसरे चुनावों में मतदाता दिग्भ्रम का शिकार रहे हैं। विषेश तौर पर उत्तर भारत के राज्यों में हालात निराशाजनक ही रहे हैं। मतदाताओं ने सरेआम जाति−धर्म के नाम पर चुनाव मैदान में उतरे विभिन्न दलों के प्रत्याशियों के हाथों में लोकतंत्र की कमान थमाई है। बिहार और उत्तर प्रदेश तो इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इन दोनों राज्यों में विकास के मॉडल का अता−पता तक नहीं है। उसका कोई चेहरा नहीं है। कोई दशा-दिशा नहीं है। दूसरे राज्यों में जातिवाद का जोर रहा है, पर यह विषबेल जितनी इन दोनों राज्यों में पनपी है, उतनी किसी राज्य में नहीं।

इसके लिए राजनीतिक दलों को एकमात्र कसूरवार ठहराना न्यायोचित नहीं होगा। कम या ज्यादा कहीं न कहीं मतदाता भी चुनावी बुराईयों के साथ क्षणिक फायदों या तुच्छ भावनाओं के ज्वार में बहने के जिम्मेदार रहे हैं। यदि मतदाता ठान लें कि चुनाव में प्रत्याशी किसी भी दल का हो, यदि सर्वांगीण विकास का खाका पेश नहीं करेगा, तो वोट नहीं मिलेगा। ऐसी दृढ़ता दिखाने के बाद शायद ही कोई राजनीतिक दल उन्हें चकमा देने का साहस करे।

अब वक्त आ गया है कि यह कह कर मतदाताओं को जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता कि उनमें जागरूकता की कमी है। यह कमी दूर करने की जिम्मेदारी भी मतदाताओं की स्वयं की है। लोकसभा, विधान सभा सहित स्थानीय निकायों के ढेरों चुनावों में वोटों के अधिकार का उपयोग करने के बाद यह कहना कि चुनावी बुराईयों को प्रोत्साहित करने के लिए मतदाता जिम्मेदार नहीं है, गलत होगा। सवाल यह भी है कि आखिर और कितने चुनावों के बाद मतदाताओं में परिपक्वता आएगी। मतदाता कब तक नाबालिग बने रहेंगे। उन्हें अच्छे−बुरे की पहचान कब तक नहीं होगी। यदि मतदाता ठान लें कि किसी तरह के लालच का शिकार होने की बजाए विकास ही वोट का पैमाना होगा तो कोई भी दल उन्हें बरगलाने का साहस नहीं करेगा।

मतदाताओं को सवाल राजनीतिक दलों से पूछने के बजाए खुद से पूछना चाहिए कि आखिर उन्हें क्या चाहिए। क्या उन्हें राजनीति में जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वंशवाद, अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार बर्दाश्त है। क्या यही उनकी नियति है कि एक बार वोट देने के बाद पांच तक साल अपने हाथ कटा लें, फिर सुख−शांति और विकास नहीं होने के लिए राजनीतिक दलों को कोसते रहें। मतदाता सांप की बीन की तरह वायदों पर कब तक झूमते रहेंगे। मतदाता कब तक लाचार और निरीह बने रहेंगे। आखिर और कितने चुनावों का इंतजार करना होगा जब मतदाता लोकतंत्र के असली वारिस होंगे और राजनीतिक दल मात्र ट्रस्टी। यह चक्र आखिर कब तक चलेगा। यह भी निश्चित है कि जब तक मतदाता इस दुष्चक्र को भेदने के लिए अभिमन्यू नहीं बनेंगे तब तक हर बार राजनीतिक दल उन्हें ऐसे ही भूलभूलैया में भटकाते रहेंगे। अब तो दागदार और गुमराह करने वाले प्रत्याशियों को नकारने के लिए मतदाताओं के हाथों में नोटा की ताकत भी आ गई है। जिससे राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों में उनके चयन को आईना दिखाया जा सकता है। यह भी निश्चित है कि एक बार मतदाताओं ने तगड़ा सबक सिखा दिया तो भविष्य में कोई भी राजनीतिक दल उनकी लोकतंत्र के असली वारिस की शान में गुस्ताखी करने का साहस नहीं कर सकेगा।

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