महज कानून के जोर से राष्ट्रवाद लाना संभव नहीं

indian-flagदेश को आजादी मिले हुए 69 साल हो गए। यह आजादी भौगोलिक दृष्टि से ही मिली लगती है। देश की मौजूदा हालत के मद्देनजर यही लगता है कि असली आजादी के लिए लगातार संघर्ष जारी है। सुप्रीम कोर्ट का राष्ट्रगान को सिनेमाघरों में अनिवार्य किए जाने का ऐतिहासिक फैसला क्या राजनीतिक दलों और देशवासियों को इस दिशा में सोचने को विवश करेगा। इसके मायने हैं कि देश का हर नागरिक सबसे पहले देश के बारे में सोचे। निश्चित तौर पर जन्मभूमि के प्रति कृतज्ञता का भाव सर्वोच्च स्तर पर होना चाहिए। देश अभी तक जाति, धर्म, सम्प्रदाय, नस्ल और क्षेत्रवाद जैसे टुकड़ों में बंटा हुआ है। ‘करेला और नीम चढ़ा’ जैसी हालत यह है कि भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अपराध, दुर्घटनाएं और बुजुर्ग, महिलाओं−बच्चों के प्रति अपमानजनक हालात राष्ट्रवाद के सवालों को मुंह चिढ़ा रहे हैं।

 मौजूदा हालात इस कदर बिगड़े हुए हैं कि दिल्ली में प्रदूषण के भयावह स्तर के बावजूद आम लोगों और दोनों सरकारों ने आतिशबाजी पर पाबंदी नहीं लगाई। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को ही पहल करनी पड़ी। सवाल यही है कि मात्र सिनेमाघरों में मूवी देखने वालों के जरिए ही राष्ट्रवाद का उद्देश्य हासिल किया जा सकता है। बगैर चारित्रिक और शैक्षिक निर्माण के ऐसे लक्ष्य की पूर्ति संदेह ही उत्पन्न करेगी। इस तरह राष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाना उसी तरह है जैसे लोग मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरजाघर जाते हैं, पर आचरण और व्यवहार में सभी धार्मिक भाव को लागू नहीं करते। राष्ट्रवाद रटाने की नहीं व्यवहार में अमल में लाने की विषयवस्तु है। इसे डंडे के जोर से न तो जगाया जा सकता है और न ही लागू करवाया जा सकता है। देश में हजारों कानून बने हुए हैं। व्यवहारिक तौर पर उनमें से कितने लागू हो पाते हैं। यदि कानून हर खास और आम आदमी पर लागू हो जाएं तो जबरन सिनेमाघरों में राष्ट्रगान की नौबत ही नहीं आए। अभी तो हालात यह है कि धनपशु, माफिया, नौकरशाह और नेता ही सबसे पहले कानून के उल्लंघन की नजीर पेश करते नजर आते हैं।
सवाल यह भी है कि आखिर देशभक्ति और राष्ट्रवाद का पैमाना क्या होना चाहिए। दरअसल जब भी देशभक्ति या राष्ट्रवाद की चर्चा होती है तो निगाहें जापान, अमरीका और विकसित यूरोपीय देशों की तरफ जाती हैं। इन देशों की देशभक्ति की नजीरें पेश की जाती हैं। भारत के हालात इनसे बिल्कुल इतर हैं। इन देशों की आजादी, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगौलिक परिस्थितियां भारत से एकदम जुदा हैं। जापान के एक उदाहरण से इसे और बेहतर समझा जा सकता है। वहां श्रमिकों ने राष्ट्रवाद के दायरे में प्रदर्शन किया। मांगें मंगवाने के लिए लिए अतिरिक्त उत्पादन किया। अधिक उत्पादन से परेशान होकर प्रबंधन को आखिरकार उनकी मांगें मानने को विवष होना पड़ा। ऐसे सकारात्मक प्रदर्शन की भारत में तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। विकसित देशों के नागरिकों ने महज कानून के बूते नहीं बल्कि ईमानदारी से अथक परिश्रम के जरिए भौगोलिक सीमाओं को राष्ट्रवाद के सांचे में ढाला है। इनसे भारत की तुलना करने से पहले यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि राष्ट्रवाद का संबंध राष्ट्रीय निर्माण से है न कि मात्र सीमित दायरे में राष्ट्रगान गाने से। राष्ट्रगान से शायद ही किसी को परहेज हो। किन्तु राष्ट्रीयता और देशभक्ति को संकीर्णता के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। बेहतर होगा कि इस तरह के फैसले लेने या देने से पहले देशव्यापी चर्चा करके जनमानस तैयार किया जाए। संसद और विधान सभाओं में इस पर बहस कराई जाए। स्वतंत्र संगठनों का भी इसमें पक्ष रखा जाए। इसके बाद ही ऐसी कोई नीति और कानून बनाए जाएं। केवल राष्ट्रगान से ही देशभक्ति का भाव नहीं जगाया जा सकता है। जरूरी है कि देश की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक शिराओं में इसका संचार हो। सिनेमाहॉलों के जरिए यह भाव टिकाउ इसलिए भी नहीं होगा क्योंकि इसके तत्काल बाद मूवी शुरू हो जाती है। ऐसे में राष्ट्रगान का भाव भला कितनी देर टिका रहेगा। सवाल यह है भी कि महंगी होती सिनेमा की दरों को देखते हुए कितने लोग इसे देखने जाते हैं। क्या दो−चार महीनों या साल में एक−दो बार मूवी देखने के दौरान सुनने वाले राष्ट्रगान से देशभक्ति का जज्बा कायम रहेगा। इसका भाव समंदर में उठने वाली लहरों जैसा ही होगा।
देश में सत्तर प्रतिशत आबादी गरीबी की जीवन रेखा से नीचे जीवनयापन कर रही है। इनके पास जीवन जीने लायक बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। इनमें से ज्यादातर को अभी तक यह भी ठीक से पता भी नहीं कि राष्ट्र और राष्ट्रगान के मायने क्या हैं। इनके लिए जीवन जीने लायक सुविधा जुटाना ही टेढ़ी खीर साबित हो रही है। अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि वयस्क सिनेमा से पहले राष्ट्रगान बजेगा या नहीं। यदि यह फैसला ऐसी मूवीज पर भी लागू होता है तो अजीबोगरीब स्थिति उत्पन्न होगी। ऐसे में क्या राष्ट्रगान की गरिमा बची रहेगी। वैसे भी सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान का तात्पर्य है कि धनी और उच्च मध्यम वर्ग तक उसकी पहुंच। मल्टीप्लेक्सों की संस्कृति में बेहद महंगा सिनेमा देखना आम लोगों के बूते से बाहर है। वैसे भी लोग सिनेमाघरों में मनोरंजन के मूड में जाते हैं, राष्ट्रभक्ति के नहीं। जबरन लादे जाने से राष्ट्रगान के सम्मान में जरा भी कमी रह गई तो सिनेमा मालिक को ही इसके परिणाम झेलने पड़ेंगे। इसका क्रियान्वयन कराना आसान नहीं है। ऐसे प्रयासों से देशभक्ति का जज्बा क्षणिक तौर पर उत्पन्न तो किया जा सकता है किन्तु उसका असर भी उतना ही रहेगा। इसके लिए ठोस प्रयासों की जरूरत है। इसके लिए बेहतर है कि देश में दसवीं कक्षा से दो वर्ष के लिए एनसीसी और एनएसएस जैसी योजनाएं विद्यालयों में अनिवार्य की जाएं। जहां से युवा वर्ग अनुशासन और समाज सेवा के संस्कार हासिल कर सके। युवाओं के हाथों में ही देश का भविष्य है। मौजूदा दौर में जिस तरह के अराजकता के हालात हैं, उसमें बर्बाद होती ऊर्जा को सही दिशा-दशा देने से ही राष्ट्रवाद की नींव मजबूत करने के प्रयास कारगर साबित होंगे।
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