मानसिक रूप से मजबूत महिलाएं

अपनी केस हिस्ट्री की चर्चा करते हुए मनोवैज्ञानिक आरती आनंद कहती हैं कि उनके पास ऐसी कई महिलाएं आती हैं, जो नि:संतान हैं, पर ज्यादातर मामलों में वे पति की मानसिक स्थिति के बारे में ही बातचीत करती हैं। वे मुझसे गुजारिश करती हैं कि उनके पति को काउंसलिंग की जरूरत है, ताकि उनका ब्रेन वॉश हो सके। दरअसल, स्त्रियां मानसिक रूप से अधिक मजबूत होती हैं। वे किसी भी विषम परिस्थितियों का सामना एक कुशल मैनेजर की तरह कर सकती हैं। अगर उन्हें किसी प्रकार का गम सता रहा है तो वे उस समस्या पर सिर खपाने की बजाय दूसरे काम की ओर अपना दिमाग लगाती हैं। आरती आगे कहती हैं कि आपको अपने आसपास सिंगल मदर फैमिली के कई उदाहरण मिल सकते हैं, लेकिन सिंगल फादर फैमिली के उदाहरण कम ही मिलते होंगे। यह सच है कि एक मां अकेली होने के बावजूद अपने सारे फर्ज पूरी करती है, लेकिन ज्यादातर मामलों में अकेले पिता को अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने के लिए सहारे की जरूरत पड़ती है।

विस्तृत हुआ संसार
सुरुचि एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती हैं। वह चालीस पार कर चुकी हैं, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं है। उन्होंने अब तक कोई बच्चा गोद नहीं लिया है। ऑफिस से फुर्सत मिलते ही वह अपने आसपास के जरूरतमंद बच्चों को पढ़ाती-लिखाती हैं। उन बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए वह हर तरह का प्रयास भी करती रहती हैं। बच्चे भी उन्हें मां कहकर पुकारते हैं। लेखिका अरुणिमा सिंह कहती हैं कि आज से पंद्रह-बीस साल पहले घरेलू स्त्रियों की संख्या अधिक थी। पति को ऑफिस भेजने और घरेलू कामकाज निपटाने के बाद उनके पास काफी खाली वक्त होता था। अकेली होने पर उनका दिमाग इसी सोच पर केंद्रित हो जाता था कि उनकी कोई संतान नहीं है, पर आज परिदृश्य में बदलाव आ चुका है। आजकल ऐसी स्त्रियों की संख्या बढ़ गई है, जो कामकाजी हैं। घर और ऑफिस की जिम्मेदारी को पूरी करने के बाद उनके पास इतना वक्त नहीं होता कि वे इस विषय पर सोचें।

कमी का मैनेजमेंट
अगर वह संतान के न होने पर अकेलापन महसूस करता है तो उसके लिए कहीं न कहीं समाज भी जिम्मेदार है। हालांकि नि:संतान होने पर स्त्रियों को अधिक ताना मारा जाता है, चाहे इसके लिए वह खुद जिम्मेदार हो या नहीं। गांवों या छोटे शहरों में आज भी ज्यादातर पुरुष ही कमाने के लिए घर से बाहर निकलते हैं और स्त्रियां घर पर रहती हैं। घर में रहकर उन्हें कई मोर्चो पर लडऩा पड़ता है, पर यह भी एक सच है कि विषम परिस्थितियों से लड़ते-लड़ते वे मजबूत हो जाती हैं। दूसरी बात यह है कि वे अपने दुख को कभी समाज में शेयर नहीं कर पातीं। आपने देखा होगा कि अगर उनकी तबियत खराब है तो वे हरसंभव उसे इग्नोर करने की कोशिश करती हैं। अगर उन्हें किसी चीज की कमी भी महसूस होती है तो भी वे जाहिर नहीं होने देतीं। वहीं अगर पुरुषों को कुछ जरूरत महसूस होती है तो वे तुरंत मांग करने लगते हैं। वे अपनी मांग या कमी का गाहे-बगाहे इजहार भी करते हैं। साइकोलॉजिस्ट अरविंद मिश्रा कहते हैं कि महिलाएं भावुक जरूर होती हैं, लेकिन उन्हें अपनी कमी को मैनेज करना आता है।

पुरुषों की रुढि़वादी सोच
श्वेता सिंह के कोई बच्चा नहीं है। वह दो बार आईवीएफ ट्राई कर चुकी हैं, लेकिन दोनों बार उन्हें असफलता हाथ लगी। तीसरी बार इस प्रक्रिया को आजमाने के लिए वह खुद को तैयार कर रही हैं। पूछने पर कहती हैं, मुझे लगता है कि तीसरी बार मुझे जरूर सफलता मिलेगी। अगर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ तो मैं एक बच्चा गोद ले लूंगी। वहीं दूसरी ओर यदि इस विषय पर उनके पति से बातचीत होती है तो कई निराशाजनक बातें सुनने को मिल सकती हैं। वह हरदम इस सोच में डूबे रहते हैं कि उनका वंश आगे कैसे बढ़ पाएगा? उनके मरने के बाद उनकी संपलि का वारिस कौन होगा। शिक्षाविद विभा सिंह कहती हैं कि कुछ मामलों में पुरुष आज भी रुढि़वादी सोच से जुड़े हुए हैं। हालांकि बच्चा दोनों के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन पुरुष चाहते हैं कि उलराधिकारी उनका अपना ही खून हो। वे बच्चा गोद लेने में भी झिझकते हैं। मनोवैज्ञानिक इंग्रिड कोलिंस ने एक संदर्भ में कहा था कि संतान न होने पर पुरुष कुछ मामलों में अवसाद से घिर जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनके लिए परिवार की सांत्वना, प्यार और मदद बेहद जरूरी होता है।
ज्यादातर पुरुष हर हाल में अपना ही बच्चा चाहते हैं। गोद लिए गए बच्चों को वे मन से स्वीकार नहीं कर पाते। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है उनका ईगो। वहीं औरतों के लिए गोद लिए बच्चों को अपनाना आसान है। बच्चे चाहे किसी के हों, उन्हें देखते ही उनका ममत्व छलकने लगता है।
भावनाओं की अभिव्यक्ति
स्त्रियों को अगर किसी प्रकार का दुख है तो आंसुओं के सहारे या फिर बोलकर उसे मन से बाहर निकाल लेती हैं, लेकिन पुरुष मन ही मन किसी विषय पर निरंतर सोचता रहता है। वह अपने दुख को शेयर भी नहीं कर पाता है। स्त्रियां स्वभाव से काफी फ्लेक्सिबल होती हैं। अगर उन्हें किसी बात की कमी है तो वह दूसरी बातों की ओर अपना ध्यान केंद्रित कर लेती हैं, लेकिन पुरुष उसी लीक पर चलते रहते हैं। वह समझौतावादी नहीं होता।
सच कहूं तो बच्चा न होने पर न पुरुष अकेलापन महसूस करता है और न स्त्रियां, पर हमारा समाज समय-समय पर दोनों को शॉक देता रहता है कि तुम्हारे कोई संतान नहीं है। बच्चे पैदा करना एक तरह से उनके लिए सामाजिक जिम्मेदारी बना दी जाती है। किसी भी समारोह पर अक्सर उनसे एक ही सवाल किया जाता है कि आपके घर किलकारी कब गूंजेगी? इसके बाद शुरू होता है सलाहों का सिलसिला, डॉक्टरी इलाज से लेकर ईश्वरीय आशीर्वाद तक। इस बात को कुछ पुरुष दिल से लगा लेते हैं।

 

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