..बस एक औलाद की खातिर

जमाना बदला और लोगों के विचार भी। तभी तो अब संतान न होने पर महिलाओं की अपेक्षा पुरुष भावनात्मक रूप से अधिक प्रभावित होते हैं। वे सामाजिक और यहां तक कि व्यक्तिगत रूप से भी खुद को अकेला महसूस करते हैं। क्या यह सच है..
डिज्नीलैंड में बच्चों का शोर चरम पर है। आशीष के ऑफिस ऑवर खत्म हो चुके हैं, पर उन्हें घर लौटने की कोई जल्दी नहीं है। वह वहीं झूले के पास बैठ गए हैं। शायद वह किसी गंभीर विषय पर सोच-विचार कर रहे हैं। बीच में वह कभी बच्चों को निहार रहे हैं तो कभी बेवजह पॉकेट में हाथ डालते और निकालते हैं। उनकी कोई संतान नहीं है। वर्षो से उनका और उनकी पत्नी असीमा का इलाज चल रहा है। अब तक का नतीजा सिफर है। कुछ डॉक्टर्स ने उन्हें बच्चा गोद लेने की भी सलाह दी, पर वह अपनी संतान होने के जिद पर अड़े हैं। वे न सिर्फ ऑफिस कलीग्स से कम बातचीत करते हैं, बल्कि समाज परिवार से भी कटे-कटे रहते हैं। वहीं दूसरी ओर असीमा बच्चा न होने के बावजूद दिनभर किसी न किसी काम में व्यस्त रहती हैं। वह सोशल गैदरिंग में भाग लेती हैं और खुद की फिटनेस का पूरा ख्याल रखती हैं।
आमतौर पर समाज में यह धारणा बनी हुई है कि एक स्त्री संतान होने के बाद ही खुद को संपूर्ण मानती है। अगर वह नि:संतान है तो उसका सामाजिक यहां तक कि उसका व्यक्तिगत आचार-व्यवहार भी प्रभावित होता है। पुरुष इन भावों के प्रति निर्विकार होते हैं। संतान न होने की स्थिति में वे खुद को सामाजिक कार्यो में व्यस्त कर लेते हैं, पर इन दिनों इस परिदृश्य में बदलाव आया है। महिलाओं की अपेक्षा पुरुष भावनात्मक रूप से अधिक प्रभावित होते हैं, यदि उन्हें बच्चा नहीं है। सामाजिक और मानसिक रूप से वे खुद को बेहद अकेला महसूस करते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि दिमागी तौर पर महिलाएं अधिक मजबूत होती हैं। कामकाजी होने की वजह से उनका दायरा घर-परिवार तक सीमित रहने की बजाय विस्तृत हुआ है, जिसका सकारात्मक प्रभाव उनकी सोच पर भी पड़ा है।

 

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