डोनाल्ड ट्रंप ने पूरी दुनिया का पर्यावरण संतुलन बिगाड़ दिया

पर्यावरण दिवस से ठीक पहले पेरिस समझौते से पीछे हटकर अमेरिका ने पूरी दुनिया का पर्यावरण संतुलन बिगाड़ने का काम किया है। रस्म अदायगी के तौर पर विश्व पर्यावरण दिवस तो इस वर्ष भी मनाया जायेगा लेकिन इससे ठीक चार दिन पहले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का यह बयान विश्व भर के देशों एवं समस्त पर्यावरणविदों को हैरत में डाल गया कि उनका देश पेरिस समझौते से पीछे हट रहा है और वह इसका पालन नहीं करेगा। इसका सीधा सा अर्थ है कि वह पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाने वाले अविकसित एवं विकासशील देशों को गैस उत्सर्जन के प्रभाव को खत्म करने के तरीके अपनाने के लिए किसी भी प्रकार की आर्थिक मदद नहीं करेगा और स्वयं भी गैस उत्सर्जन कम करने के अपने इरादे को अमलीजामा पहनाने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं करेगा। 2015 में हुए पेरिस समझौते के तहत अमेरिका को गरीब देशों को इस पर अमल के लिए 3 बिलियन डॉलर देने पर सहमति बनी थी।

अमेरिका का जलवायु परिवर्तन को लेकर पेरिस समझौते से हाथ खींचना बहुत दुखद है। इससे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के वैश्विक प्रयासों और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को गहरा झटका लगा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के इस फैसले की पूरी दुनिया में निंदा हो रही है। फ़्रांस, जर्मनी, इटली ने अमेरिका के इस कदम पर एक संयुक्त बयान जारी करके कहा है कि पेरिस जलवायु समझौते पर फ़िर से बातचीत असंभव है। फ़्रांस के राष्ट्रपति ने कहा है कि इस मसले पर कोई प्लान बी नहीं हो सकता क्योंकि हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। किसी भी परिस्थिति में पेरिस जलवायु समझौते पर फ़िर से बातचीत नहीं हो सकती। हमने इस समझौते में हस्ताक्षर करने वाले देशों से बातचीत की है और समझौते का हिस्सा बने रहने का आग्रह किया है।
पर्यावरण को बड़े स्तर पर प्रभावित करने वाले मुद्दे मसलन भोजन की बर्बादी और नुकसान, वनों की कटाई, ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ना आदि के कुप्रभावों से बचाने के उपायों के लिए विश्व पर्यावरण दिवस को हर वर्ष मनाने की शुरुआत की गयी थी। पर्यावरण संरक्षण के लिए सौर जल तापक, सौर स्रोतों के माध्यम से ऊर्जा उत्पादन, नए जल निकासी तंत्र का विकास करना, गैस से उत्पन्न कार्बन डाइक्साइड कम करना, जंगल प्रबंधन पर ध्यान देना, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का प्रभाव घटाना, बिजली उत्पाद बढ़ाने के लिए कोयले की जगह हाइड्रो शक्ति का इस्तेमाल, बंजर भूमि पर पेड़ लगाने तथा बायो-ईंधन उत्पादन को बढ़ावा देने तथा जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए ही पर्यावरण दिवस की शुरूआत हुई थी और इसी कड़ी के बढ़ाते हुए विश्व भर के 195 देशों ने पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किये थे लेकिन अमेरिका का पेरिस के जलवायु परिवर्तन समझौते से पीछे हटना चिंता की बात है।
पेरिस जलवायु करार से राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के पीछे हटने के कारण इस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करना मुश्किल है। पेरिस जलवायु करार का मुख्य लक्ष्य वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को दो डिग्री से नीचे रखना है जो अब मुश्किल है। दिसम्बर 2015 में कई दौर की गहन बातचीत के बाद पेरिस जलवायु समझौते की नींव रखी गई थी और अब तक 195 देश इसके लिए राजी हो चुके हैं। भारत ने 2016 में इस समझौते पर दस्तखत किये थे। भारत से पहले 61 देश इस समझौते के लिए राजी हो चुके थे जो कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरों के लिए जिम्मेदार करीब 48 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन करते हैं।
भारत का कहना है कि भारत विकासशील देश है और तेज़ी से विकास कर रहे दूसरे देशों की तरह उसे विकास कार्यों के लिए कोयले की ज़रूरत है, जो सस्ता ईंधन है, इसलिए विकसित देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन में बड़ी कटौती करनी चाहिए तथा बड़े एवं विकसित देशों को विकासशील देशों की मदद करनी चाहिए ताकि वे अपने यहां गैस उत्सर्जन का प्रभाव कम कर सकें। वहीं विकसित देशों का कहना है कि चीन और भारत जैसे विकासशील देशों को भी अपने कार्बन उत्सर्जन में बड़ी कटौती करनी चीहिए ताकि जलवायु परिवर्तन पर हुए समझौते के उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। अमेरिका ने यह कहते हुए समझौते से अलग होने का ऐलान किया है कि इससे उसके यहां 25 लाख नौकरियां कम होंगी और इसके अलावा वह दूसरे देशों की सहायता के नाम पर उनकी तिजोरियां भरेगा जो उसे मंजूर नहीं है और अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो भारत और चीन का नाम लेकर कहा है कि सहायता के नाम पर इन दोंनो देशों को फायदा होगा।
पेरिस जलवायु समझौते का एक चिंताजनक पहलू यह है कि इसे मानने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। इसके अलावा कोई देश अपने कार्बन उत्सर्जन में कितनी कटौती करेगा, इसकी जांच की भी कोई व्यवस्था नहीं है। पेरिस समझौता सही दिशा में एक बड़ी पहल हो सकता था लेकिन अमेरिका जैसे बड़े देश के पीछे हटने से यह लागू होने से पहले ही धराशायी होता नजर आ रहा है। हालाँकि यह समझौता बहुत सीमित और देरी से उठाया गया कदम था लेकिन पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने में कारगर हो सकता है।
सितम्बर 2016 तक कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर पूर्व औद्योगिक स्तर की तुलना में 30 प्रतिशत बढ़ गया है। इस समझौते का एक प्रमुख पहलू यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन के पहले से दिखाई पड़ रहे प्रभावों को नजरअंदाज करते हुए केवल भविष्य के खतरों से निपटने पर ही ध्यान दिया गया है। यह समझौता कार्बन उत्सर्जन रोकने के उपायों पर तो जोर देता है लेकिन इन उपायों को प्रभावी ढंग से लागू करने की इसमें प्रभावी व्यवस्था नहीं है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को रोकने के लिए समुचित फंड की व्यवस्था पर जोर दिया गया था ताकि पिछड़े एवं गरीब देशों को अपने यहां गैस उत्सर्जन एवं जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कम करने के लिए आर्थिक मदद दी जा सके और यह जिम्मेदारी अमेरिका सहित विकासशील देशों पर डाली गई थी जो अब संभव नहीं है और गरीब, पिछड़े तथा अर्धविकासशील देश इतने सशक्त नहीं हैं कि अपने दम पर गैस उत्सर्जन के प्रभावों को कम कर सकें।
वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में अमेरिका का 15 फ़ीसदी योगदान है। इसके साथ ही अमरीका विकासशील देशों में बढ़ते तापमान को रोकने के लिए वित्तीय और तकनीकी मदद मुहैया करना वाला सबसे अहम स्रोत था। अमरीका के पीछे हटने से इसका व्यापक असर दूसरे देशों पर भी पड़ेगा, जिन्हें अमेरिका सहित अन्य देशों से आर्थिक मदद की उम्मीद थी। पेरिस जलवायु समझौते के दौरान अमरीका और चीन के बीच अहम सहमति बनी थी। अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति ओबामा और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की थी। बढ़ते तापमान की चुनौती का सामना करने के लिए कनाडा और मेक्सिको भी अहम भूमिका अदा कर सकते हैं। हालांकि अमेरिका के औद्योगिक एवं कार्पोरेट घराने पेरिस जलवायु करार के समर्थक हैं और ट्रम्प के पीछे नहीं हटने से निराश हैं। गूगल, ऐपल जैसी सैकड़ों बड़ी जीवाश्म ईंधन उत्पादक कंपनियों ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से आग्रह किया था कि वह पेरिस जलवायु करार के साथ बने रहें और विश्व बिरादरी का सहयोग करें लेकिन डोनाल्ड की हठधर्मिता से सभी हतप्रद हैं। दूसरे विकसित देशों की तरह अमरीका भी कोयले के ईंधन से दूर हट चुका है। ब्रिटेन साल 2025 तक कोयले से बिजली पैदा करना पूरी तरह से बंद कर देगा। दूसरी तरफ़ विकासशील देश अब भी बिजली के मामले में कोयले पर निर्भर हैं। यहां बिजली का प्राथमिक स्रोत कोयला है। ऊर्जा के दूसरे स्रोतों की कीमतों में कमी के कारण उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश उस तरफ़ आकर्षित हो रहे हैं। हाल ही में हुई एक नीलामी में सौर ऊर्जा की कीमत कोयले से उत्पादित होने वाली बिजली के मुकाबले 18 फ़ीसदी कम रही। इसका मतलब है कि सौर ऊर्जा आधारित बिजली सस्ती पड़ेगी और इससे कार्बन भी उत्पन्न नहीं होगा।
पर्यावरण के मुद्दों के बारे में आम लोगों को जागरूक करने के लिए पर्यावरण दिवस मनाया जाता है और पेरिस जलवायु समझौता इस कड़ी में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। अमेरिका को समझना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन से उनका अपना देश भी प्रभावित हो रहा है। सुरक्षित, स्वच्छ और अधिक सुखी भविष्य के लिए सभी देशों को एकजुट होकर प्रयास करना चाहिए और सिर्फ सरकारों और देशों को ही क्यों सभी लोगों को अपने आसपास के माहौल को सुरक्षित एवं स्वच्छ रखने का प्रयास करना चाहिए।
सोनिया चोपड़ा
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