राष्ट्रपति बनने के बाद भी जमीन से जुड़े हुए हैं रामनाथ कोविंद

श्री रामनाथ कोविंद का भारत का 14वां राष्ट्रपति चुना जाना अपने आप में एक एतिहासिक घटना है। अब तक जो 13 राष्ट्रपति चुने गए, उनमें से कई लोग पहले उप-राष्ट्रपति रहे, केंद्रीय मंत्री रहे, मुख्यमंत्री रहे, कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और राज्यपाल भी रहे। राज्यपाल तो कोविंद भी रहे लेकिन दो साल से भी कम। जब उनका नाम राष्ट्रपति पद के लिए घोषित हुआ, तब लोगों को जिज्ञासा हुई कि यह कोविंद कौन हैं ? उनके बारे में यह लोक-जिज्ञासा ही बताती है कि उनका राष्ट्रपति बनना एतिहासिक क्यों हैं ? जो व्यक्ति 30-35 साल से देश की एक प्रमुख पार्टी भाजपा में सक्रिय रहा हो, दो बार राज्यसभा का सदस्य रहा हो, उसके दलित मोर्चे का अध्यक्ष रहा हो, वह इतना प्रचार-परांगमुख और आत्मगोपी हो कि लोगों को पूछना पड़े कि वह कौन है, यही प्रश्न एक बड़े प्रश्न को जन्म देता है कि रामनाथ कोविंद कैसे राष्ट्रपति होंगे ?

इसमें शक नहीं कि कोविंद ऐसे समय में राष्ट्रपति बन रहे हैं, जो अपने ढंग का अनूठा है। 30 साल में यह पहली सरकार है जो स्पष्ट बहुमत से बनी है, जिसके कर्णधार नरेंद्र मोदी हैं। पिछले तीन साल में देश में जो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री रहे हैं, वे दोनों परस्पर विरोधी दलों के हैं लेकिन इसके बावजूद उनमें न तो ऐसी कोई अप्रियता हुई, जैसी कि हिंदू कोड बिल और सोमनाथ मंदिर को लेकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरु के बीच हुई थी या 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद डॉ. राधाकृष्णन और नेहरु या पोस्टल बिल को लेकर ज्ञानी जैल सिंह और राजीव गांधी के बीच हुई थी। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैचारिक और दलीय दृष्टि से दो विरोधी ध्रुवों की तरह हैं और उनके बीच मतभेद भी हुए हैं लेकिन उन्होंने कोई अप्रिय या अशोभनीय रूप धारण नहीं किया तो यह शंका क्यों की जाए कि कोविंद और मोदी की पटरी नहीं बैठेगी ? मैं समझता हूं कि कोविंद के राष्ट्रपति रहते हुए विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में उचित तालमेल रहेगा।
कोविंद को राष्ट्रपति बनाने के पीछे कारण ढूंढते हुए कई विश्लेषकों का मानना है कि नरेंद्र मोदी को इस पद के लिए ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो रबर का ठप्पा सिद्ध हो, जो सरकार के हर निर्णय पर सहमति की मुहर लगा दे। यह बात किस प्रधानमंत्री के लिए सत्य नहीं होगी ? कौन प्रधानमंत्री यह चाहेगा कि किसी विघ्नसंतोषी को राष्ट्रपति बना दिया जाए ? क्या अपने 14 राष्ट्रपतियों में से आप एक भी ऐसे राष्ट्रपति का नाम गिना सकते हैं, जो अपने समकालीन प्रधानमंत्री को चुनौती दे सकता था ? सिर्फ ज्ञानी जैल सिंह, जो पहले मुख्यमंत्री और गृहमंत्री रह चुके थे, वे ही प्रधानमंत्री राजीव गांधी के विरुद्ध कार्रवाई करने की सोच रहे थे। लेकिन उनकी भी हिम्मत नहीं हुई। इसीलिए मोदी को कोई दोष नहीं दिया जा सकता। संभवतः इसी कारण श्री लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी को मौका नहीं मिला। यों भी आपातकाल के बाद अब तक संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक राष्ट्रपति के स्वविवेक के अधिकार को काफी सीमित कर दिया गया है। मंत्रिमंडल के निर्णय पर राष्ट्रपति को आखिरकार मुहर लगानी ही होती है।
जहां तक रामनाथ कोविंद का प्रश्न है, वे दलित और ग्रामीण परिवार में पैदा जरूर हुए हैं लेकिन वे प्रतिभावान और चरित्रवान छात्र रहे हैं। उन्होंने वकालत की परीक्षाएं पास की हैं और वे सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करते रहे हैं। उन्हें संविधान और कानून की पेचीदगियों का ज्ञान सामान्य नेताओं से कहीं ज्यादा है। वे कोई भी फैसला करते वक्त अपनी इस योग्यता और अनुभव को दरकिनार नहीं होने देंगे। भाजपा के सक्रिय सदस्य बनने के पहले वे अनेक बड़े नेताओं के सहयोगी की तरह भी काम कर चुके हैं। उन नेताओं में प्रमुख पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई भी हैं। अब से लगभग 40 साल पहले कोविंदजी मुझे मोरारजी भाई के डुप्ले लेन के बंगलों पर ही मिला करते थे। यह तथ्य उन विरोधी नेताओं और सेक्यूलरवादियों को शायद अच्छा लगेगा, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं। क्या उन्हें पता नहीं कि कई विरोधी दलों के सांसदों और विधायकों ने कोविंद को अपना वोट दिया है ? उन्होंने सोनिया गांधी की ‘अंतःकरण के वोट’ की अपील को वास्तव में चरितार्थ कर दिया है। कोविंद को सिर्फ उत्तर प्रदेश और हिंदी राज्यों में नहीं, देश के लगभग सभी प्रांतों में कई विरोधियों के भी वोट मिले हैं। कांग्रेस ने दलित कार्ड खेला, मीरा कुमार को कोविंद के खिलाफ खड़ा कर दिया लेकिन इसके बावजूद उन्हें 66 प्रतिशत और मीरा कुमार को 34 प्रतिशत ही वोट मिले। मीरा कुमार खुद अत्यंत योग्य महिला हैं और बाबू जग जीवनराम की बेटी हैं, इसके बावजूद कोविंद को इतने वोट इसीलिए मिल गए कि उनके बारे में कोई निषेधात्मक बात सामने नहीं आई। यदि कोविंद कमजोर उम्मीदवार होते तो उन्हें इतना तगड़ा बहुमत नहीं मिलता। राष्ट्रपति पद के चुनाव-प्रचार के दौरान कोविंदजी और मीराजी ने जिस गरिमा और संयम का परिचय दिया, वह राष्ट्रपति पद के भावी उम्मीदवारों के लिए अनुकरणीय है। कोविंद को इतने अधिक मत मिलने का एक अभिप्रायः यह भी है कि देश के लगभग दो-तिहाई सांसदों और विधायकों ने भाजपा की सरकार के प्रति अपने समर्थन और सद्भाव को प्रकट किया है।
राष्ट्रपति चुने जाने पर श्री रामनाथ कोविंद ने जो बयान दिया, वह कितना मार्मिक है। वह बताता है कि कोविंद अपने बचपन को भूले नहीं हैं। ‘प्रभुता पाए, काय मद नाहिं’ की कहावत को उन्होंने गलत सिद्ध कर दिया है। उन्होंने कहा कि देश में मेरे जैसे अनगिनत कोविंद हैं, जो बरसात में भीग रहे होंगे, खेतों में पसीना बहा रहे होंगे ताकि रात को वे अपना पेट भर सकें। उन्होंने अपने बचपन के वे दिन भी याद किए, जब उनके गांव के झोपड़े की छत टपकने लगती थी और वे सारे भाई-बहन दीवाल के सहारे खड़े होकर वर्षा के रुकने का इंतजार करते रहते थे। ऐसा व्यक्ति क्या अहंकारी या अहसान फरामोश हो सकता है, क्या ? जिस समाज और राष्ट्र ने ऐसे अकिंचन बालक को बड़ा किया, शिक्षित किया और देश का सर्वोच्च पद सौंप दिया, उससे यही आशा की जाती है कि वह भी राष्ट्रपति के रूप में देश की सेवा कृतज्ञतापूर्वक करेगा। अब वे किसी जाति-विशेष, वर्ग-विशेष, प्रांत विशेष के नहीं, संपूर्ण राष्ट्र के प्रतिनिधि हैं। उन्होंने कहा भी है कि उनकी जीत उन सबकी जीत है, जो अपने कर्तव्य का पालन ईमानदारी से करते हैं। बिहार के राज्यपाल के तौर पर उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कैसे सम्मोहित कर लिया था, यह बात मुझे नीतीशजी ने कुछ माह पहले पटना में उनसे हुई मेरी भेंट में मुझे बताई थी। मैं उम्मीद करता हूं कि राष्ट्रपति के तौर पर कोविंद भी देश के सभी राजनीतिक दलों के साथ ऐसा ही निष्पक्ष व्यवहार करेंगे।
कोविंदजी स्वभाव से इतने निश्छल और पारदर्शी हैं कि अपने संवैधानिक दायित्वों को निभाने में वे कोई कोताही नहीं करेंगे। संवैधानिक मर्यादाओं का वे पालन अवश्य करेंगे लेकिन उनका जागृत विवेक और अनासक्त व्यक्तित्व उन्हें कभी भी रबर का ठप्पा नहीं बनने देगा। यह सरकार, जिसने उन्हें राष्ट्रपति बनाया है, इसका कार्यकाल दो साल बाद पूर हो जाएगा लेकिन वे अगले पांच साल तक राष्ट्रपति रहेंगे याने उन्हें अभी कम से कम एक नई सरकार को शपथ दिलानी होगी। यों तो विपक्ष के जो हाल आज हैं, वे ऐसे ही रहे तो इसी सरकार का लौटना अवश्यंभावी है लेकिन दो साल बाद यदि परिस्थितियां बदलती हैं और यदि कोई स्पष्ट बहुमत की सरकार नहीं आती है तो राष्ट्रपति कोविंद की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाएगी। इसी प्रकार अभी स्पष्ट बहुमत की इस सरकार के बारे में धारणा यह बनती जा रही है कि यह व्यक्तिकेंद्रित और भावावेश आधारित होती जा रही है। इस मुद्दे पर भी राष्ट्रपति कोविंद को कड़ी नजर रखनी होगी। यों तो संवैधानिक दृष्टि से राष्ट्रपति सिर्फ मागदर्शन, सलाह और चेतावनी ही दे सकता है, लेकिन वर्तमान में राष्ट्रपति की यह भूमिका भी अति महत्वपूर्ण हो सकती है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष)
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