पितृ पक्ष समाप्ति की तरफ

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिन पितृ पक्ष (पितृ अथवा पिता) के नाम से जाने जाते है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध आदि सम्पन करते हैं। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा पितृ पक्ष में। जिस मास और तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उनका दाह संस्कार हुआ है, वर्ष में उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।

महत्त्व
पितृ पक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति करने का महापर्व है। इस अवधि में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर हमें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं। योतिष मान्यताओं के आधार पर सूर्य देव जब कन्या राशि में गोचर करते हैं, तब हमारे पितर अपने पुत्र-पौत्रों के यहाँ विचरण करते हैं। विशेष रूप से वे तर्पण की कामना करते हैं। श्राद्ध से पितृगण प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वालों को सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल देते हैं।[1] पितृ पक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्मवैवर्तपुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृ पक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

तीन ऋण

भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार प्रत्येक मनुष्य पर इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात तीन प्रकार के ऋण होते हैं-
देव ऋण
ऋषि ऋण
पितृ ऋण

श्राद्ध में पिण्डदान करते लोग

पितृ पक्ष के श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध साल के ऐसे सुनहरे दिन हैं, जिनमें व्यक्ति श्राद्ध प्रक्रिया में शामिल होकर उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त हो सकता है। महाभारत के प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इनकार कर दिया था। कर्ण ने कहा कि- मैंने तो अपनी सारी सम्पदा सदैव दान-पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे ऊपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है? चित्रगुप्त ने जवाब दिया कि- राजन, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके उपर अभी पितृऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पुन: पृथ्वी पर जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्ध-तर्पण तथा पिंडदान विधिवत करके आइए। तभी आपको मोक्ष यानी स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी।
प्रमुख श्राद्ध स्थल

जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृगण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दु:खी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीडि़त रहते है। वे नि:संतान भी हो सकते हैं। अथवा पितृदोष के कारण उनको संन्तान का सुख भी दुर्लभ रहता है। भारत की पावन भूमि में ऐसे कई स्थान हैं, जहाँ ऐसे भूले-भटके लोग पितृदोष की निवृत्ति के लिए अनुष्ठान कर सकते हैं। जैसे कि बिहार में गया के घाट पर, गंगासागर तथा महाराष्ट्र में त्र्यम्बकेश्वर, हरियाणा में पिहोवा, उत्तर प्रदेश में गडगंगा, उत्तराखंड में हरिद्वार भी पितृ दोष के निवारण के लिए श्राद्धकर्म को आरंभ करने हेतु उपयुक्त स्थल हैं। इन स्थलों में जाकर वे श्रद्धालु भी पितृ पक्ष के श्राद्ध आरंभ कर सकते हैं, जिन्होंने पहले कभी भी श्राद्घ न किया हो। वैसे तो पितृ पक्ष के श्राद्ध की महिमा अपार है, लेकिन जो भी श्रद्धालु अपने दिवंगत पिता, माता दादा, परदादा, नाना, नानी आदि का इन 16 श्राद्धों में व्रत उपवास रखकर ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा आदि देते हैं, उनके घर लक्ष्मी और विष्णु भगवान सदैव ही बने रहते हैं। अर्थात वे सदैव ही धन धान्य से परिपूर्ण रहते हैं।
श्राद्ध तिथियाँ

श्राद्ध करने का सीधा संबंध पितरों यानी दिवंगत पारिवारिकजनों का श्रद्धापूर्वक किए जाने वाला स्मरण है, जो उनकी मृत्यु की तिथि में किया जाता हैं। अर्थात पितर प्रतिपदा को स्वर्गवासी हुए हों, उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही होगा। इसी प्रकार अन्य दिनों का भी, लेकिन विशेष मान्यता यह भी है कि पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाए। परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं, जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, यानी दुर्घटना, विस्फोट, हत्या या आत्महत्या अथवा विष से। ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी के दिन और जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। जीवन मे यदि कभी भूले-भटके माता-पिता के प्रति कोई दुर्व्यवहार, निंदनीय कर्म या अशुद्ध कर्म हो जाए तो पितृ पक्ष में पितरों का विधिपूर्वक ब्राह्मण को बुलाकर दूब, तिल, कुशा, तुलसीदल, फल, मेवा, दाल-चावल, पूरी व पकवान आदि सहित अपने दिवंगत माता-पिता, दादा-ताऊ, चाचा, परदादा, नाना-नानी आदि पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करके श्राद्ध करने से सारे ही पाप कट जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि ये सभी श्राद्ध पितरों की दिवंगत यानि मृत्यु की तिथियों में ही किए जाएँ। यह मान्यता है कि ब्राह्मण के रूप में पितृ पक्ष में दिए हुए दान पुण्य का फल दिवंगत पितरों की आत्मा की तुष्टि हेतु जाता है। अर्थात् ब्राह्मण प्रसन्न तो पितृजन भी प्रसन्न रहते हैं। अपात्र ब्राह्मण को कभी भी श्राद्ध करने के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति में इसका खास प्रावधान है।

पितृ पक्ष की सभी पंद्रह तिथियाँ श्राद्ध को समर्पित हैं। अत: वर्ष के किसी भी माह एवं तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों का श्राद्ध उसी तिथि को किया जाना चाहिए। पितृ पक्ष में कुतप वेला अर्थात मध्याह्न के समय (दोपहर साढ़े बारह से एक बजे तक) श्राद्ध करना चाहिए। प्रत्येक माह की अमावस्या पितरों की पुण्य तिथि मानी जाती है, किंतु आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस्या पितरों हेतु विशेष फलदायक है। इस अमावस्या को पितृविसर्जनी अमावस्या अथवा महालया भी कहा जाता है। इसी तिथि को समस्त पितरों का विसर्जन होता है। जिन पितरों की पुण्य तिथि ज्ञात नहीं होती अथवा किन्हीं कारणवश जिनका श्राद्ध पितृ पक्ष के पंद्रह दिनों में नहीं हो पाता, उनका श्राद्ध, दान, तर्पण आदि इसी तिथि को किया जाता है। इस अमावस्या को सभी पितर अपने-अपने सगे-सम्बन्धियों के द्वार पर पिण्डदान, श्राद्ध एवं तर्पण आदि की कामना से जाते हैं, तथा इन सबके न मिलने पर शाप देकर पितृलोक को प्रस्थान कर जाते हैं।

पितरों का आगमन
श्राद्ध करते लोग

श्राद्ध से पहले श्राद्धकर्ता को एक दिन पहले उपवास रखना होता है, जिसे हबीक कहते। अगले दिन निर्धारित मृत्यु तिथि को अपराह्न में गजछाया के बाद श्राद्ध तर्पण तथा बाह्मण भोज कराया जाता है। मान्यता है कि पितृ पक्ष के दौरान पितर दोपहर बाद श्राद्धकर्ता के घर पक्षी/कौवे या चिडिया के रूप मे आते हैं। अत: श्राद्धकर्म कभी भी सुबह या एक बजे से पहले नहीं करना चाहिए, क्योंकि तब तक दिवंगत पितर अनुपस्थित रहते हैं। कुछ लोग भोजन पकाकर बिना पिण्ड दिये ही मन्दिर में थाली दे आते हैं। इससे भी मृतआत्मा की शान्ति नहीं होती और श्राद्धकर्ता को श्राद्ध का पुण्य नहीं मिलता।
भोय पदार्थ

श्राद्ध के दिन लहसुन, प्याज रहित सात्विक भोजन घर की रसोई में बनना चाहिए, जिसमें उड़द की दाल, बडे, चावल, दूध-घी से बने पकवान, खीर, मौसमी सब्जी जो बेल पर लगती है, जैसे- तोरई, लौकी, सीताफल, भिण्डी, कचे केले की सब्जी आदि ही भोजन मे मान्य है। आलू, मूली, बैंगन, अरबी तथा जमीन के नीचे पैदा होने वाली सब्जियाँ पितरो को नहीं चढ़ती हैं। श्राद्ध के लिए तैयार भोजन की तीन-तीन आहुतियों और तीन-तीन चावल के पिण्ड तैयार करने के बाद प्रेतमंजरी के मंत्रोचार के बाद ज्ञात और अज्ञात पितरों को नाम और राशि से सम्बोधित करके आमंत्रित किया जाता है। कुशा के आसन में बिठाकर गंगाजल से स्नान कराकर तिल, जौ और सफ़ेद रंग के फूल और चन्दन आदि समर्पित करके चावल या जौ के आटे का पिण्ड आदि समर्पित किया जाता है। फिर उनके नाम का नैवेद्ध रखा जाता है।
संतानहीन का श्राद्ध

श्राद्ध करने के लिए मनुस्मृति और ब्रह्मवैवर्तपुराण जैसे सभी प्रमुख शास्त्रों में यही बताया गया है कि दिवंगत पितरों के परिवार में या तो येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र और अगर पुत्र न हो तो धेवता (नाती), भतीजा, भांजा या शिष्य ही तिलांजलि और पिंडदान देने के पात्र होते हैं। कई ऐसे पितर भी होते हैं, जिनके पुत्र संतान नहीं होती है या फिर जो संतानहीन होते हैं। ऐसे पितरों के प्रति आदर पूर्वक अगर उनके भाई, भतीजे, भांजे या अन्य चाचा-ताऊ के परिवार के पुरूष सदस्य पितृ पक्ष में श्रद्धापूर्वक व्रत रखकर पिंडदान, अन्नदान और वस्त्रदान करके ब्राह्मणों से विधिपूर्वक श्राद्ध कराते हैं तो पीडि़त आत्मा को मोक्ष मिलता है।
स्त्री के लिए श्राद्ध का अधिकार

एक मुख्य बात और है कि क्या विभिन्न पारिवारिक परिस्थितियों में महिलाएँ भी श्राद्ध कर सकती है या नहीं। इस प्रश्न को भी उठाया जाता रहा है। परिवार के पुरुष सदस्य या पुत्र-पौत्र आदि नहीं होने पर कई बार कन्या या धर्मपत्नी को भी मृतक के अन्तिम संस्कार करते या मरने के बाद वर्षी श्राद्ध करते देखा गया है। परिस्थितियो के अनुसार यह एक अन्तिम विकल्प ही है, जो अब धीरे-धीरे चलन में आने लगा है। इस मामले में धर्मसिन्धु सहित मनुस्मृति और गरुड़पुराण आदि ग्रन्थ भी महिलाओं को पिण्डदान आदि करने का अधिकार प्रदान करते हैं। आज के समय में शंकराचार्यों ने भी इस प्रकार की व्यवस्थाओं को तर्क संगत बताया है कि श्रा़द्ध करने की परंपरा जीवित रहे और लोग अपने पितरों को नहीं भूलें। अन्तिम संस्कार में भी महिला अपने परिवार/पितर को मुखाग्नि दे सकती है। महाराष्ट्र सहित कई उत्तरी रायो में अब पुत्र/पौत्र नहीं होने पर पत्नी, बेटी, बहिन या नातिन ने भी सभी मृतक संस्कार करने आरंभ कर दिये हैं। काशी आदि के कुछ गुरुकुल आदि की संस्कृत वेद पाठशालाओं में तो कन्याओं को पांण्डित्य कर्म और वेद पठन आदि करने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जिसमें महिलाओं को श्राद्ध करने और कराने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है।[2]

वैदिक परंपरा के अनुसार महिलाएँ यज्ञ अनुष्ठान, संकल्प और व्रत आदि तो रख सकती हैं, लेकिन श्राद्ध की विधि को स्वयं नहीं कर सकती हैं। विधवा स्त्री अगर संतानहीन हो तो अपने पति के नाम श्राद्ध का संकल्प रखकर ब्राह्मण या पुरोहित परिवार के पुरूष सदस्य से ही पिंडदान आदि का विधान पूरा करवा सकती है। इसी प्रकार जिन पितरों के कन्याएँ ही वंश परंपरा में हैं तो उन्हें पितरों के नाम व्रत रखकर उसके दामाद या धेवते, नाती आदि ब्राह्मण को बुलाकर श्राद्धकर्म की निवृत्ति करा सकते हैं। साधु-सन्तों के शिष्यगण या शिष्य विशेष श्राद्ध कर सकते हैं।

धन बरसाएगी मां लक्ष्मी
पैसा कमाना है तो लक्ष्मी को मनाएं
आर्थिक संपन्नता के लिए किसी भी माह के प्रथम शुक्ल पक्ष को यह प्रयोग आरंभ करें और नियमित 3 शुक्रवार को यह उपाय करें।
प्रत्येक दिन नित्य क्रम से स्नानोंपरांत अपने घर के पूजा स्थान में घी का दीपक जलाकर मां लक्ष्मी को मिश्री और खीर का भोग लगाएं।
तत्पश्चात 7 वर्ष की आयु से कम की कन्याओं को श्रद्धापूर्वक भोजन कराएं। भोजन में खीर और मिश्री जरूर खिलाएं। ऐसा करने से मां लक्ष्मी अवश्य प्रसन्न होगीं। आर्थिक परेशानी खत्म होगी।
हर शुक्रवार लाल या सफेद परिधान पहनें। हाथ में चांदी की अंगूठी या छल्ला धारण कर उसी समय चावल और शकर का किसी योग्य ब्राह्मण को दान करें।
एस्ट्रो टिप्स : जब भी कोई रत्न पूजन कर के धारण करें उसी समय उस रत्न से संबंधित सामग्री का दान करना चाहिए।
इससे रत्न संबंधी ग्रह की शुभता बढ़ती है।
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श्राद्ध पक्ष में पितृ का आशीष कैसे पाएं
योतिष के अनुसार पितृ पूजन
पितृ हमारे वंश को बढ़ाते है, पितृ पूजन करने से परिवार में सुख-शांति, धन-धान्य, यश, वैभव, लक्ष्मी हमेशा बनी रहती है। संतान का सुख भी पितृ ही प्रदान करते हैं।
शास्त्रों में पितृ को पितृदेव कहा जाता है। पितृ पूजन प्रत्येक घर के शुभ कार्य में प्रथम किया जाता है। जो कि नांदी श्राद्ध के रूप में किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन (क्वांर) की अमावस्या तक के समय को शास्त्रों में पितृपक्ष बताया है। इन 16 दिनों में जो पुत्र अपने पिता, माता अथवा अपने वंश के पितरों का पूजन (तर्पण, पितृयज्ञ, धूप, श्राद्ध) करता है। वह अवश्य ही उनका आशीर्वाद प्राप्त करता है।
इन 16 दिनों में जिनको पितृदोष है वह अवश्य त्रि-पिंडी श्राद्ध अथवा नारायण बली का पूजन किसी तीर्थस्थल पर कराएं। काक भोजन कराएं, तो उनके पितृ सद्गति को प्राप्त हो, बैकुंठ में स्थान पाते हैं।
इन दिनों में किया गया श्राद्ध अनन्य कोटि यज्ञ के बराबर फल देने वाला होता है।
माता-पितामही चैव तथैव प्रपितामही।
पिता-पितामहश्चैव तथैव प्रतितामह:।।
माता महस्तत्पिता च प्रमातामहकादय:।
ऐते भवन्तु सुप्रीता: प्रयछतु च मंगलम।।

अपने पिता-पितामह, माता, मातामही, पितामही, माता के पिता, मातृ पक्ष, पत्नी के पिता, अपने भाई, बहन, सखा, गुरु, गुरुमाता का श्राद्ध मंत्रों का उचारण कर विधिवत संपन्न करें। ब्राह्मण का जोड़ा यानी पति-पत्नी को भोजन कराएं। पितृ अवश्य आपको आशीर्वाद प्रदान करेंगे। पितृ पक्ष में मन चित्त से पितरों का पूजन करें।

पितृभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधानम:।
पितामहैभ्य: स्वाधायिभ्य: स्वधा:नम:।
प्रपितामहेभ्य: स्वाधायिभ्य: स्वधा:नम:।
अक्षन्पितरो मीम-दन्त पितेरोतीतृपन्त
पितर: पितर: शुध्वम्।
ये चेह पितरों ये च नेह याश्च विधयाश्च न प्रव्रिध।
त्वं वेत्थ यति ते जातवेद:
स्वधाभिर्यज्ञ: सुकृत जुषस्व।
इन यजुर्वेद के मंत्रों का उचारण कर पितरों की प्रार्थना करें वे अवश्य मनोरथ पूर्ण करेंगे।

 

 

 

 

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