भारतीय वैज्ञानिक कर रहे प्लाज्मा की निवारक शक्ति का उपयोग
गांधीनगर में साबरमती के तट पर अमूल डेयरी और एक अस्पताल के बीचोंबीच एक ऐसा संस्थान स्थित है, जो ठोस, द्रव या गैस नहीं बल्कि पदार्थ की चौथी अवस्था यानी प्लाज्मा से जुड़ी गतिविधियों को अंजाम देता है। इंस्टीट्यूट ऑफ प्लाज्मा रिसर्च के वैज्ञानिक आज न सिर्फ इंसानों के उपचार के लिए बल्कि पृथ्वी के उपचार के लिए भी प्लाज्मा का इस्तेमाल कर रहे हैं। प्लाज्मा किसी पदार्थ की ऐसी अदभुत अवस्था है, जिसमें आवेशित आयन गैसीय अवस्था में बंधे हुए होते हैं। लेकिन चूंकि पूरा द्रव्यमान आवेशित होता है इसलिए ये पदार्थ की किसी भी अन्य ज्ञात किस्म से अलग व्यवहार दर्शाते हैं। इस समय प्लाज्मा की जिस सघन और तीव्र अवस्था को हम रोज देखते हैं, वह सूर्य है। यहां इलेक्ट्रॉनों से लैस गर्म गैसें एक अलग ही अवस्था में रहते हैं। प्लाज्मा की इस बड़ी गेंद का एक परिणाम यह होता है कि इससे धरती पर जीवन का आधार माने जाने वाली सौर उर्जा का संचार होता है। इस तरह से प्लाज्मा में एक जीवनदायिनी गुण है।
अधिकतर प्लाज्मा उच्च तापमानों पर बनते हैं लेकिन वैज्ञानिक कम तापमान पर भी प्लाज्मा बना सकते हैं। ठंडे प्लाज्मा का इस्तेमाल इंसानों में फंगल इंफेक्शन का उपचार करने के लिए किया जाता है। इसकी एक किस्म का इस्तेमाल अंगोरा नामक बेहद गर्म उन के शोधन में भी किया जाता है। इस उन का प्रयोग कुछ सबसे गर्म उनी कपड़े बनाने के लिए किया जाता है।
इसके अलावा, उच्च तापमान वाले प्लाज्मा का इस्तेमाल अस्पताल के जहरीले कचरे और कार्बनिक कचरे को नष्ट करने के लिए किया जा रहा है। इस तरह प्लाज्मा धरती के उपचार में भी मदद कर रहे हैं। वार्षिक तौर पर 500 करोड़ रुपए के बजट वाले इंस्टीट्यूट ऑफ प्लाज्मा रिसर्च को उर्जा के बेहद उपयोगी स्वरूप यानी संलयन बिजली के लिए जाना जाता है। इसमें दो परमाणुओं को एकसाथ संलयन कराया जाता है और इनके मिलने पर जारी उर्जा का इस्तेमाल बिजली बनाने के लिए किया जाता है।
आईपीआर में ‘टोकामाक्स’ नामक बड़ी मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है और लगभग 700 कर्मचारी एक अल्पकालिक छोटा सूर्य बनाने के काम में लगे हैं। आज बड़ी चुंबकों और वृहद विद्युत क्षेत्रों का इस्तेमाल करके वे ऐसी स्थितियां पैदा कर सकते हैं, जो सूर्य पर सेकेंड के कुछ हिस्से के लिए पैदा होती हैं। यहां उम्मीद यह है कि इसका निर्माण सतत आधार पर भी किया जा सकता है। इस स्थिति में संलयन बिजली पैदा करने की दिशा में कदम बढ़ा जा सकेगा।
आज सूर्य की तारीफ उससे मिलने वाली निर्बाध उर्जा के लिए की जाती है। इस हाइटेक प्लाज्मा संस्थान को अध्ययन के उस अहम केंद्र के रूप में जाना जाता है, जो भारत को फ्रांस में बन रहे इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरीमेंटल रिएक्टर में साझेदारी करने में सहयोग कर रहा है। यह 14 अरब डॉलर का यह सबसे बड़ा परमाणु रिएक्टर जब पूरी तरह सक्रिय हो जाएगा, तब यह संभवत: वर्ष 2050 तक स्वच्छ संलयन बिजली उपलब्ध करवाने में मदद कर सकेगा।
इस परियोजना का वित्तपोषण और संचालन सात सदस्यों द्वारा किया जाता है। ये सदस्य हैं- यूरोपीय संघ, भारत, जापान, चीन, रूस, दक्षिण कोरिया और अमेरिका। लेकिन आज संस्थान के वैज्ञानिकों के नेतृत्व में इंडस्ट्रियल प्लाज्मा टेक्नोलॉजीज में समाज की तत्कालिक जरूरतों को पूरा करने की दिशा में काम चल रहा है। वे एक परीक्षण इस बात का कर रहे हैं कि कम तापमान वाले प्लाज्मा का इस्तेमाल फंगल इंफेक्शन के उपचार में और गंदे दांत की सफाई में किसी दंत चिकित्सक की मदद के लिए कैसे किया जा सकता है। आर्गन गैस के इस्तेमाल से ठंडे प्लाज्मा जेट विकसित किए जाते रहे हैं। यदि प्लाज्मा की इस धार को संक्रमित स्थान पर सीधे भेजा जाए तो कुछ ही बार में संक्रमण ठीक हो जाएगा। इसके पहले चिकित्सीय परीक्षण कोलकाता में किए जा रहे हैं।
अस्पतालों और प्रयोगशालाओं में जैवचिकित्सीय कचरा एक बड़ी समस्या है। इनमें बेहद संक्रामक कचरा भी हो सकता है। इनके निपटान का तरीका इसे उच्च तापमान पर जलाना है। संक्रामक पदाथरें के कारण कैंसरजनक धुंआ उठता है, इसलिए इन्हें सीधे जला देने से पर्यावरण में भारी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। आईपीआर के वैज्ञानिकों ने पाया कि यदि उच्च तापमान के प्लाज्मा के इस्तेमाल से कम ऑक्सीजन वाली स्थिति में कार्बनिक कचरे को नष्ट किया जाए तो कचरा सीधे मीथेन, कार्बन मोना ऑक्साइड, हाइड्रोजन और जल जैसे ऐसे अणुओं में तब्दील होगा, जो पर्यावरणीय लिहाज से उतने अधिक हानिकारक नहीं होंगे। यह प्रक्रिया प्लाज्मा पायरोलेसिस है। यह तुलनात्मक रूप से महंगी है लेकिन इससे धरती को स्वस्थ रखने में मदद मिलती है। आईपीआर के निदेशक शशांक चतुर्वेदी इसे ‘प्लाज्मा की मदद से स्वच्छ भारत अभियान’ की संज्ञा देते हैं।
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