नवरात्रि में सिद्ध शक्तिपीठ सकराय में उमड़ पड़ते हैं भक्त
राजस्थान शक्ति व भक्ति की साधना स्थली रहा है। यही कारण है कि मातृ शक्ति के पुजारी यहाँ के शैलखण्डों पर असुरनासिनी माँ दुर्गा व भगवती के मन्दिर शंख नगाड़ों से गुंजायमान करते हैं। राजस्थान में देवियों के नामों का आधार प्राय: अवतार है, लेकिन ख्याति प्राप्त सिद्ध शक्ति पीठ व स्थानीयता भी नामकरण का आधार रहा है। राजस्थान के शेखावाटी संभाग को अवृत करने वाला अरावली पर्वत का भाग मालकेतु पर्वत कहलाता है, इसी मालकेतु पर्वत श्रृंखला के मध्य भाग में झुंझुनूं जिले के उदयपुरवाटी के ठीक दक्षिण में 16 किलोमीटर व लोहार्गल के पूर्व में वृताकार घाटी के बीच भगवती सकराय का भव्य मन्दिर बना हुआ है। घाटी के चारों और फैले छोटे-बड़े शिखरों तथा दलानों पर बारहों महीने विभिन्न प्रकार के जँगली पेड़ों व लताओं के कारण हरियाली छायी रहती है। इन पेड़ों में पलास, सैनणा, फासला, बेर, कांकूण जैसे फलदार पेड़ों के साथ कई प्रकार की आरोग्यदायिनी जड़ी-बूटियां भी मिलती हैं। यहाँ के पहाड़ों मे कई जगह जमीन के अन्दर आलू के आकार का सफेद रंग का मूल मिलता है, जिसमें दूध जैसा रस निकलता है जो स्वाद में मीठा होता है। स्थानीय बोली में इसे झूडूला कहा जाता है। यह सकराय का प्रिय शाक है। जंगली व हिंसक जानवर बघेरा, बंदर, साम्भर, सेई, भेड़िया, सियार, गीदड़ आदि भी इस प्राकृतिक स्थल व इसके आस-पास विचरण करते हैं। वर्षा ऋतु में इस क्षेत्र की छठा अदित्य हो जाती है। चारों और पेड़ों के मध्य पूर्व से उत्तर की और मन्दिर के पास से बहने वाली पुराण प्रसिद्ध शक्रधार के कुण्डों के समशीतोष्ण जल में स्नान करने से तन व मन दोनों पवित्र हो जाते हैं। ऐसे शांत एवं मनोहारी प्राकृतिक वातावरण के बीच भगवती ब्राह्मणी (सकराय) व रुद्राणी (काली) विराजमान हैं। वैसे देवी की दोनों प्रतिमाओं की आठ भुजाएं हैं जिनमें अस्त्र-शस्त्र धारण कर रखा है तथा सिंह पर सवार होकर महिषासुर का वध कर रहीं हैं। दोनों ही प्रतिमायें समान आकार-प्रकार की और बड़ी सुन्दर हैं। देवी के पूर्वाभिमुख मन्दिर के गर्भ गृह तथा सामने के सभा मण्डप का निर्माण तराशे हुए विशाल पत्थर को जोड़कर किया गया है। इसमें मुख्यत: मैड़ व संगमरमर के पत्थरों का प्रयोग हुआ है। जो मन्दिर के वृताकार गर्भ गृह में चांदनी के बड़े नक्कशीदार सिंहासन पर विराजमान हैं। सिंहासन के दांयी और पीतल के ऊंचे दीपदान पर रखा अखण्ड दीपक सैंकड़ों वर्षों से निरन्तर जल रहा है। यहां साल में चारों गुप्त नवरात्रों सहित नवरात्रों में अनुष्ठान होते हैं। देवी को सीरा-सुसवा का भोग लगता है। कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में पांडव अपने स्वजनों की हत्या के पाप से मुक्त होने के लिये अरावली पर्वतों पर आये थे। यहां आकर धर्मराज युधिष्ठिर ने पूजा अर्चना के लिये मां देवी शर्करा की स्थापना की थी जो आज का शाकम्भरी शक्तिपीठ है।
पदमपुराण में वर्णन है कि देवराज इन्द्र ने दुर्गम आदि दैत्यों दारा छीने गये अपने राज को पुन: प्राप्त करने हेतु इस स्थल पर आकर माँ सकराय की वर्षों तक पूजा-अर्चना, कठोर तपस्या की। इन्द्र की तपस्या से प्रसन्न हो माँ सकराय ने इन्द्र को अपना खोया राजवैभव पुन: पाने का वर दिया। इन्द्र ने इसी स्थान पर विधिपूर्वक पूजा अर्चना कर देवी की प्रतिमा को स्थापित किया, इसी कारण सकराय को शक्र-मातृका भी कहते हैं। उपरोक्त पौराणिक वर्णन के उपरान्त इस स्थान के बारे में जो साक्ष्य मिलता है वह लगभग 1300 वर्ष पुराना है। इस दृष्टि से यह स्थान शेखावाटी का प्राचीनतम स्थल है।
यहाँ पर तीन शिलालेख प्राप्त हुए हैं जिनसे इस स्थान की प्राचीनता पूरी तरह सिद्ध होती है। जाने माने पुरात्तवज्ञ डॉ. भण्डारकर ने यहाँ का दौरा किया था तथा यहां के शिलालेखों का अध्ययन कर यहां की प्राचीनता को स्वीकारा था। इतिहास वेत्ता पं. गौरीशंकर ओझा व पद्म भूषण पण्डित झाबरमल शर्मा सन् 1935 में इस स्थान पर आये थे। मन्दिर के बाहर वाली दीवारें निःसंदेह प्राचीन हैं। वे आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में निर्मित मानी जाती हैं। यहाँ जो भी शिला लेख व भित्ति लेख मिलते हैं, वे इस सम्पूर्ण क्षेत्र में उपलब्ध एकमात्र साक्ष्य हैं। जो समपूर्ण क्षेत्र की प्राचीनता की पुष्टि करते हैं। पार्थक के दृष्टिकोण से यह स्थान सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल के समकालीन रहा है एवं उसी वक्त यहाँ काली की प्रतिमा स्थापित हुई होगी ऐसी सम्भावना है। माता के मंदिर में ब्रह्माणी व रूद्राणी के रूप में दो प्रतिमाएं विराजमान हैं। दोनों प्रतिमाओं के बीच में स्वत: प्रकट हुई माता की एक छोटी मुख्य प्रतिमा विराजमान है। सिद्ध शक्ति पीठ होने से माता की ख्याति आज देश विदेश में फैली हुई है। मंदिर के महंत दयानाथ महाराज बताते हैं कि भारत में माता शाकम्भरी के दो ही प्राचीन मंदिर हैं। पहला प्राचीन मंदिर यहां सकराय में तो दूसरा उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में है। शाक की देवी के दोनों ही मंदिर हरियाली की वादियों में बसे हैं। मंदिर के पुजारी पंडित दीनदयाल लाटा बताते हैं कि प्रतिदिन सुबह साढ़े पांच बजे और शाम को पौने सात बजे माता की आरती होती है। दोनों देवियों की मूर्तियों के पास उल्लू की प्रतिमा भी है जो घाघल देव के नाम से प्रसिद्ध है। माताजी के मन्दिर के निकट ही मदन मोहन जी व जटाशंकर जी के प्राचीन व दर्शनीय देव स्थल हैं।
जटाशंकर जी मंदिर में एकमुखी शिवलिंग की बड़ी सुन्दर प्रतिमा है जो 1200-1300 वर्षों पुरानी बतायी जाती है। सकरा मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर कोहकुण्ड नामक स्थान है। यहां एक विशाल कुंड है जिसे रावण कुंड कहा जाता है। कहते हैं कि यहां रावण ने तपस्या की थी। यहां कुंड के किनारे रावणेश्वर महादेव नाम से शिवालय बना हुआ है। पहले सकराय का मंदिर छोटा था जिसे उस समय के महंत गुलाब नाथ जी ने भव्य व वर्तमान स्वरूप प्रदान करवाया था। उनके समय में काफी विकास कार्य हुये थे। मन्दिर में प्रात: मंगल आरती एवं सायं को बाल आरती होती है। दोपहर में दोनों मूर्तियों को एक साथ शाकाहारी भोग लगाया जाता है। जात-जड़ूला करने आने वाले श्रद्धालु सीरा-पुड़ी-सुसवा का भोग लगाते हैं। वैसे तो यहाँ हरदम दर्शनार्थी आते रहते हैं, लेकिन चैत्र व आसोज के नवरात्र में यहाँ विशाल मेला लगता है। सकराय जयन्ती पौष शुक्ल पूर्णिमा को यहाँ काफी श्रद्धालु दर्शनार्थ आते हैं। यहाँ मन्दिर की महत्ता गद्दी करीबन 550 वर्षों से गोरखपंथी नाथ सम्प्रदाय के अधिकार में है। इस गद्दी पर बैठने वाले नाथ आजीवन अविवाहित रहते हैं। वर्तमान में दयानाथ जी महाराज गत 37 वर्षों से यहां के महंत हैं जिनके निर्देशन में मंदिर में मूलभूत सुविधाओं का विस्तार हुआ है जिससे आने वाले श्रद्धालुओं को सुविधा होती है। उनकी देखरेख में मन्दिर में पूजा, अर्चना सम्पन्न होती है। महंत दयानाथ जी पशु प्रेमी हैं। उनके निर्देशन में यहां तीन गऊशालाओं का संचालन किया जाता है जिनमें तीन सौ से अधिक गाय व बछड़ों की सेवा की जाती है। यहां की गऊशालाओं में गायों का दूध निकाल कर बेचा नहीं जाता है बल्कि पूरा दूध गाय के बछड़ों को पिलाया जाता है। महन्त जी की घुड़शाला में दर्जनों ऊंची नस्ल के घोड़े-घोड़ियां हैं। महंत दयानाथ जी की प्रेरणा से इन वर्षों में यहां आने वाले यात्रियों के रूकने के लिये आधुनिक सुख, सविधाओं वाले कई विश्राम गृहों का निर्माण हुआ है मगर फिर भी यहां वर्ष भर देश के विभिन्न भागों से विशिष्ठ व्यक्तियों व आम श्रद्धालुओं के आवागमन को देखते हुये जितनी व्यवस्था की गयी है वो पर्याप्त नहीं है। मंदिर परिसर के पास अधिक स्थान नहीं होने से आने वाले श्रद्धालुओं को अपने वाहन खड़े करने में परेशानी उठानी पड़ती है। वर्षांत के समय तो स्थिति और भी विकट हो जाती है। पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के हाथों यहां बेसिक टेलीफोन सेवा तो शुरू हो गयी थी मगर मोबाईल सेवा सुचारू नहीं होने से यहां आने वाले यात्रियों को परेशानी उठानी पड़ती है। सैंकड़ों वर्षों पश्चात इस तीर्थ स्थल को हाल ही में सड़क से जोड़ा गया है, लेकिन सड़क जगह जगह से टूट गई है। इससे वर्षा ऋतु में मार्ग बंद हो जाता है। राजस्थान सरकार ने हाल ही में शाकम्भरी क्षेत्र के करीबन 13100 वर्ग हेक्टेयर वन क्षेत्र को शाकम्भरी कंजर्वेशन रिजर्व घोषित किया है जिससे अरावली की पहाड़ियों के मध्य के इस वन क्षेत्र में स्थित दुर्लभ वनस्पतियों, पेड़-पौधों व वन्य जीवों को संरक्षण मिल सकेगा। यदि यहां वन एवं पर्यावरण विभाग फल, फूल, सुगन्धदार पेड़-पौधे लगाये तथा पर्यटन विभाग इस स्थल के रख-रखाव व सौन्दर्यकरण पर विषेश ध्यान दे तो यह स्थल सैलानियों, आध्यात्मिक शांति चाहने वालों के लिए ओर भी लाभकारी हो सकता है।
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