इसलिए लगातार चुनाव हारती जा रही है आम आदमी पार्टी

लम्बे समय से दिल्ली नगर निगम के चुनाव में दो ही पार्टियों का दबदबा था बीजेपी और कांग्रेस। लेकिन 2013 से आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से धमाकेदार एंट्री की, दोनों पुरानी पार्टियों की चूलें हिल गयीं। हालाँकि ‘आप’ के उभार का सर्वाधिक खामियाजा कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ा था, क्योंकि कांग्रेस के वोटर्स ‘आप’ के सपोर्टर्स बन गए थे। दिल्ली की जनता ने जिस तरीके का विश्वास दिखाया अरविन्द केजरीवाल पर, उसके दम पर वो जल्दबाजी में भारत विजय की यात्रा पर निकल पड़े और रातों रात राष्ट्रीय नेता का टैग अपने नाम करने की छटपटाहट इनके चेहरे से साफ देखी जा सकती थी। हालाँकि पहले लोकसभा में मुंह की खाई, फिर पंजाब और गोवा विधानसभा के नतीजों ने इन्हें वापस दिल्ली ला पटका और कभी विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी के लिए नगर निगम का चुनाव प्रतिष्ठा का विषय बन गया। इसी का दबाव था कि आप के सभी बड़े नेता विकास की बात छोड़ बीजेपी और कांग्रेस की कमियाँ निकालने में लग गए। तमाम आप नेताओं ने ऐलान भी कर दिया कि हमारी हार का कारण ईवीएम मशीन होगी। जैसे ये मान चुके थे कि इन्हें चुनाव हारना ही है। वैसे राजौरी गार्डन विधनसभा उपचुनाव में जिस तरह आम आदमी पार्टी के कैंडिडेट की ज़मानत ज़ब्त हुई, उससे इनका आत्म विश्वास तो हिल ही चुका था।

 वहीं लगातार हार का सामना कर रही कांग्रेस को भी उम्मीद थी कि इस बार का चुनाव उसे राहत देगा, मगर कांग्रेस दिल्ली एमसीडी में भी तीसरे नंबर की पार्टी रही। ऐसे में लगातार 10 सालों से दिल्ली एमसीडी पर शासन करने और लोगों की जबरदस्त नाराजगी के बावजूद भी बीजेपी ना केवल नंबर एक रही, बल्कि अप्रत्याशित जीत भी हासिल करने में सफल रही। निश्चित रूप से भाजपा की जीत में एक बड़ा फैक्टर मोदी फैक्टर रहा, पर दिल्ली एमसीडी चुनाव के विभिन्न बिंदुओं पर नज़र डालना प्रासंगिक रहेगा।
केजरीवाल पर से लोगों का विश्वास कम हुआ 
 जब केजरीवाल ने सत्ता संभाली थी, तो लोगों में एक तरह का विश्वास था कि दिल्ली की काया पलटने वाली है। केजरीवाल ने भी प्रचार के माध्यम से जनता को लुभाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। शीला दीक्षित से लेकर बीजेपी के तमाम नेताओं की ऐसी-ऐसी फाइलें खोज निकालीं कि दिल्ली की जनता ने केजरीवाल के ऊपर भरोसा कर लिया। जनता को लगा कि दिल्ली में विकास का कार्य केजरीवाल ही कर सकता है। अपने लोकलुभावन वादों के चलते आम आदमी पार्टी सत्ता में तो आ गयी, लेकिन दो साल पूरे होने के बावजूद पार्टी उन वादों को पूरा करने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाई। अपने द्वारा किये तमाम वादे जैसे महिला सुरक्षा के लिए पूरी दिल्ली में सीसीटीवी लगवाना और राष्ट्रीय राजधानी को वाईफाई जोन में तब्दील कर देना इत्यादि। इसके अलावा दिल्ली में नए स्कूल, कॉलेज और अस्पताल खोलना, संविदा कर्मचारियों को स्थायी करना जैसे मुद्दों पर आम आदमी पार्टी बचती नजर आयी।
इससे भी बड़ी बात यह रही कि बजाय कुछ ठोस काम करने के वो पूरे टाइम किसी न किसी से उलझते रहे। उनको हमेशा से ही गिला था कि मोदी सरकार उनको काम नहीं करने देती लेकिन दिल्ली की जनता इतनी बेवकूफ नहीं है। सब समझते हैं कि अगर आपको केंद्र से ही काम निकलवाना है तो आप का व्यवहार कैसा होना चाहिए। निश्चित रूप से इस मामले में केजरीवाल कहीं भी खरे नहीं उतरते। वहीं सभी नेताओं को भ्रष्टाचारी कहने वाले केजरीवाल अपने विवादित विधायकों के मामले में चुप्पी साध गए। इतना ही नहीं, एक-एक करके अपने अपने विश्वासपात्र और कर्मठ सहयोगियों को केजरीवाल अपने से अलग करते गए। हाल-फिलहाल जिस तरह से पार्टी की नींव रहे योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण व उनके वृद्ध पिता शांति भूषण को धक्के मारकर पार्टी से बाहर निकाला गया, उसका असर केजरीवाल की छवि को और नुक्सान पहुंचाता गया। जीत की खुमारी में आम आदमी पार्टी के विधायक से लेकर कार्यकर्त्ता तक ने मर्यादा तोड़ी। मजाल कि कोई आम आदमी पार्टी पर सवाल उठाये, इसके नेता तुरंत आक्रामक तरीके से पलटवार करने से नहीं चूकते और इनका यही आचरण इनको जनता से दूर ले गया। वैसे भी, यह पार्टी अचानक ऊपर चढ़ी थी और अपेक्षित परिणाम न दे पाने की स्थिति में उतनी ही तेजी से नीचे भी गिरने लगी।
 
विपक्ष में बिखराव
 अगर आंकड़ों की बात करें तो भाजपा को 36 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट एमसीडी चुनाव में मिले हैं, मगर बाकी वोट आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में बंट जाने के कारण सीटों की संख्या कम ही रही। ऐसा ही कुछ हाल उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी रहा, जबकि बिहार में नीतीश और लालू के मिल जाने से भाजपा को वहां हार का मुंह देखना पड़ा था। वस्तुतः विपक्ष को स्वीकारना होगा कि भाजपा अब राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी ताकत के रूप में उभर चुकी है, जिसकी लोकप्रियता ग्राम पंचायत के चुनाव से लेकर दिल्ली जैसे शहर में निगम पार्षद चुनाव तक बढ़ती जा रही है। ऐसे में बगैर विपक्ष के एकजुट हुए मामला न केवल इस एमसीडी चुनाव में, बल्कि आगे के तमाम चुनावों में भी कुछ ऐसा ही रह सकता है। हालाँकि, भाजपा के मुकाबले दूसरे दलों का एक होना अपने आप में असंभव को संभव करना है। पर जब अस्तित्व का संकट हो, तब तो ऐसा किया ही जाना चाहिए।
मोदी की छवि हावी रही
 हालाँकि पिछले 10 सालों से दिल्ली एमसीडी पर बीजेपी का ही कब्ज़ा रहा है और दिल्ली की जनता कई मायनों में भाजपा पार्षदों के कामों से खुश नहीं थी। ऐसे में बीजेपी ने एक बार फिर मुद्दों को अहमियत देने के बजाय नरेंद्र मोदी के फेस को आगे रख चुनाव की रणनीति बनायी और उसमे कामयाब भी हुयी। लोगों के अंदर नरेंद्र मोदी की साफ-सुथरी इमेज वाली भावना है और इस बात का बखूबी इस्तेमाल किया बीजेपी ने। या आप ये भी कह सकते हैं कि दिल्ली कि जनता ने केजरीवाल के बदले मोदी को चुनना बेहतर समझा। लगातार प्रधानमंत्री को निशाना बना कर केजरीवाल ने वैसे ही लोगों के दिलों में उनके लिए सॉफ्ट कार्नर बनाने का काम कर दिया था। और इस बात को बीजेपी ने भुनाया भी और एक तरफ से ये साबित करने में कामयाब रहे कि केजरीवाल अपने राष्ट्रीय नेता बनने के रास्ते का रोड़ा मानते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को। और इस तरह केजरीवाल अपने ही गढ़ में ढेर हो गए। वहीं एमसीडी चुनाव में बीजेपी ने इस बार किसी भी पुराने पार्षद को टिकट नहीं देने की नीति को आजमाया जो कारगर साबित हुआ। चूँकि पुराने पार्षदों के काम से जनता नाराज थी, तो नए पार्षदों के आ जाने से बीजेपी के पिछले कामों की चर्चा ही नहीं हुयी और नए पार्षद मोदी के सिपाही के रूप में बखूबी प्रस्तुत हुए।
पूर्वांचल फैक्टर और मनोज तिवारी
 बीजेपी ये अच्छे से जानती थी कि दिल्ली में पूर्वांचली अच्छी-खासी संख्या में हैं और उन्हें लुभाने के लिए भोजपुरी फिल्मों के नायक और जाने-माने भोजपुरी गायक मनोज तिवारी को दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी गयी। बीजेपी का ये दांव भी सटीक लगा। जहाँ मनोज का जलवा उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान दिखा वहीं दिल्ली में भी पूर्वांचल के लोगों को खींचने में कामयाब रहे। लगभग 50 लाख की संख्या और दिल्ली की जनसँख्या के 20 प्रतिशत से अधिक पूर्वांचली अब किंगमेकर की भूमिका में आ गए हैं। इसलिए इतने बड़े वोट बैंक को ध्यान में न रखना बेवकूफी ही थी, जो दूसरी पार्टियों ने किया।
कांग्रेस विश्वास दिलाने में नाकाम रही
 लगातार मिलती हार का सामना कर रही कांग्रेस को एक बार फिर निराशा हाथ लगी। जो कांग्रेस लगातार 15 सालों तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रही, आज उसी कांग्रेस के लिए दिल्ली में अस्तित्व बचाने जैसे हालात हो गए हैं। हालाँकि ‘आप’ के उभार की मुख्य वजह कांग्रेस ही रही है। कांग्रेस से मोह भंग होने से इसके वोटर्स आप की तरफ झुके। एमसीडी चुनाव में कांग्रेस के लिए बड़ा झटका तब लगा जब ‘अरविंदर सिंह लवली’ जैसा बड़ा नेता कांग्रेस का दामन छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए। वहीं महिला मोर्चा की अध्यक्ष बरखा सिंह ने भी कांग्रेस से किनारा कर लिया। सबसे बड़ी बात एक बार फिर प्रदेश अध्यक्ष ‘अजय माकन’ के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं। हालाँकि उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है, पर कांग्रेस में शीर्ष स्तर से लेकर नीचे तक बदलाव की आवश्यकता है। बगैर इसके यह मुसीबत में ही रहेगी, इस बात में दो राय नहीं।
अब जब बीजेपी एक बार नगर निगम की कमान अपने हाथों में ले चुकी है तो उम्मीद करते हैं कि पिछले 10 सालों के गिले शिकवे दूर करेगी और बेहतर परफार्म करके दिखायेगी। वहीं केजरीवाल अनापशनाप बोलने से बाज आएं और दिल्ली वालों के लिए हमेशा तीसरे विकल्प के रूप में अपनी मौजदगी बनाये रखें, तो कांग्रेस फिर आत्ममंथन करे। इन सबसे बड़ी बात भाजपा के मुकाबले बाकी पार्टियों को एकजुट रहना पड़ेगा, अन्यथा परिणाम सामने है…।
– विंध्यवासिनी सिंह
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