पराक्रम और सत्य की राह दिखाते हैं भगवान परशुराम
हिंदू संस्कृति व इतिहास में संतों व पर्वों का अद्वितीय स्थान है। भारत की धरती संतों की उर्वरा धरती है। ऐसे ही एक महान समाज सुधारक संत शिरोमणि भगवान परशुराम का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण एवं कल्कि पुराण आदि ग्रंथों में मिलता है। मान्यता है कि भगवान परशुराम ने अहंकारी और दुष्टों का पृथ्वी से 21 बार सफाया करने के लिए युद्ध किया। भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि व माता का नाम रेणुका था। इनको विष्णु का अवतार माना गया है। पुराणों की कथा के अनुसार भगवान परशुराम माता−पिता के अनन्य भक्त थे लेकिन वह सबसे अधिक अपने पिता के नजदीक थे। भगवान के अनुसार एक बार ऋषि जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका के आपत्तिजनक व्यवहार से नाराज हो गये थे। तब उन्होंने अपनी पत्नी का ही दण्ड स्वरूप वध करने का आदेश अपने पुत्रों को दिया। अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभवित परशुराम ने उनकी आज्ञा को स्वीकार करके माता का वध कर दिया और जो भी उनको बचाने के लिये आगे आया उनका वध कर दिया। उनके इस कार्य से प्रसन्न होकर जमदग्नि ने उनसे वर मांगने को कहा तो परशुराम ने माता व सभी भाईयों के पुर्नजीवित होने का वर ही मांगा।
भगवान परशुराम के विषय में एक कथानक यह भी है कि है- सहस्रार्जुन ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्र भुजाएं तथा युद्ध में किसी भी प्रकार से परास्त न होने का वर पा लिया था। वर प्राप्त करने के बाद वह संयोगवश वन में आखेट करते समय ऋषि जमदग्नि के आश्रम में जा पहुंचा और देवराज इंद्र द्वारा प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश ऋषि जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया।
क्रोधित परशुराम ने क्रोध में फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएं काट डालीं व सिर धड़ से अलग कर दिया। सहस्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की हत्या कर दी व माता रेणुका उनके साथ वियोग में सती हो गयीं। इस घटना के बाद पूरे वेग से महिष्मती नगर पर हमला बोल दिया और अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उन्होंने पुनः जन्म लिया और पिता का श्राद्ध सहस्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अंत में महर्षि ऋचिक ने प्रकट होकर परशुराम को घोर कृत्य करने से रोका। इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। इतना ही नहीं देवराज इंद्र के समक्ष समस्त अस्त्रों का त्याग भी कर दिया। साथ ही वह सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेंद्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे। भगवान परशुराम धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार−प्रसार करना चाहते थे और किया भी। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये थे। वे भार्गव गोत्र के सबसे आज्ञाकारी संतों में एक थे। यह सदैव अपने माता−पिता व गुरुजनों की आज्ञा का पालन करते थे। कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवंत बनाये रखना था।
उनका मत था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है ना कि अपनी प्रजा से आज्ञा पालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्मे अवश्य थे, लेकिन उनके कर्म क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव नाम से भी जाना जाता है। इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने अधिकांश विद्याएं अपनी माता से मात्र 8 वर्ष अवस्था में ही सीख ली थीं। वे पशु−पक्षियों की बातों को समझ लेते थे और उनसे बात करते थे। उन्होंने सैन्य शिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी थी लेकिन अपवाद स्वरूप महाभारत काल में भीष्म पितामह और कर्ण को भी शिक्षा दी।
भगवान परशुराम शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार थे। परशुराम जयंती का पर्व प्रायः अक्षय तृतीया दिवस के दिन मनाया जाता है। इस दिन ब्राह्मण समाज की ओर से जुलूस निकाले जाते हैं व सत्संगों का आयोजन होता है। पुराणों में भगवान परशुराम के अनेक नाम प्रचलित हैं जिसमें रामभद्र, भार्गव, भृगुपति, भृगुवंशी आदि हैं। भगवान परशुराम वीरता के साक्षात उदाहरण थे। भगवान परशुराम त्रेता व द्वापर दोनों ही युगों में रहे। रामायण और महाभारत में इसका उल्लेख मिलता है।
भगवान परशुराम जयंती के दिन मंदिरों में हवन और भंडारे आदि का आयोजन किया जाता है। कुछ लोग इस दिन उपवास रखकर भगवान परशुराम की तरह के पुत्र की कामना करते हैं। वाराह पुराण के अनुसार इस दिन व्रत रखने से राजयोग बनता है।
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