गोरखपुर में हुई मौतों पर राजनीति करने से बचें सभी पार्टियां
हिन्दुस्तान की सियासत का यह दुर्भाग्य है कि हमारे नेतागण हर मुद्दे को सियासी रंग देते हैं। समस्या कैसी भी हो, मुद्दा कोई भी हो, यहां हर बात में सियासत शुरू हो जाती है। चाहे जनहानि हो या फिर धनहानि, चाहे देश की सुरक्षा से जुड़ा मसला हो या फिर देश के स्वभिमान की बात, चाहे अतीत की गलतियां हो या फिर वर्तमान की खामियां, सब को हमारे सियासतदार राजनैतिक चोले से ढक देते हैं। बिना यह सोचे समझे कि इससे किसका कितना नुकसान होता है और किसको फायदा मिलता है। दुख की बात यह है कि सह सिलसिला आजादी के बाद से चला आ रहा है और आज तक बदस्तूर जारी है। बस फर्क इतना है कि कभी कोई सत्ता पर काबिज होता है तो कभी कोई, लेकिन जो आज विपक्ष में होता है वह पूरी बेर्शमी से अपना कल (अतीत) भूल जाता है। ऐसा ही कुछ गोरखपुर मेडिकल कालेज में काल के गाल में समा गये दर्जनों बच्चों के कथित ‘रहनुमा’ बनने वाले भी कर रहे हैं।
यह देख और सुनकर दुख होता है कि गोरखपुर में मारे गये बच्चों की मृत्यु के कारणों की जांच करने गये समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल में से किसी ने भी हकीकत नहीं उजागर की। सभी दलों के प्रतिनिधिमंडल में शामिल तमाम बड़े−बड़े नेताओं ने चंद मिनटों के दौरे में समझ लिया कि पूरे कांड के लिये योगी सरकार जिम्मेदार है। सीएम योगी सहित उनके मंत्रियों से इस्तीफा मांगने वालों की कतार ही लग गई। मानो ऐसा पहली बार हुआ हो। मौत के समय बात आंकड़ों की नहीं खामियों की होनी चाहिए, लेकिन आंकड़ों को समझे बिना हकीकत समझी भी नहीं जा सकती है। असल में पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह (एनसेफेलाइटिस बुखार) समस्या पुरानी है। हर साल इसी तरह से मौत का तांडव होता है। योगी जो आज तक गोरखपुर के सांसद हैं, लम्बे समय से एनसेफेलाइटिस के खिलाफ मुहिम चलाये हुए हैं, लेकिन इस बीमारी से निपटने के लिये जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था, उस ओर न तो पूर्व की राज्य सरकारों ने तवज्जो दी, न ही केन्द्र की सरकारों ने कभी इसे गंभीरता से लिया। सीएम योगी की यह बात अगर सच है कि जब यूपीए की सरकार थी, तबके स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने इसे राज्य सरकार की जिम्मेदारी बता कर अपना पल्ला झाड़ लिया था तो यह बेर्शमी की हद थी।
बात इससे इतर की जाये तो सच्चाई यह भी है कि विरोध के नाम पर विरोध करने वाले सियासतदारों की वजह से ही दर्जनों बच्चों की मौतों के जिम्मेदारों के खिलाफ अभी तक पुख्ता कार्रवाई नहीं हो पाई है। अगर सपा, बसपा और कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य मौत को लेकर इतने ही ईमानदार थे तो उन्हें तथ्यों के साथ उन डॉक्टर/अधिकारियों के नाम अपनी रिपोर्ट में देना चाहिए था, जो उनकी जांच में कुसूरवार पाये गये हों। लेकिन इस सबका पता लगाने का तो समय ही किसी के पास नहीं था। सिर्फ सियासत चमकानी थी तो चमकाई गई। शायद, ऐसे ही व्यवहार की वजह से यह दल और उनके आका जनता की नजरों से दूर होते जा रहे हैं। विपक्ष द्वारा जैसा रवैया बच्चों की मौत पर अख्तियार किया जा रहा है, कमोवेश ऐसा ही रवैया यह नेतागण आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, धार्मिक उन्माद, प्राकृतिक आपदाओं के समय भी अपनाते हैं। कुछ नेताओं की तो पहचान ही बन गई है, जो ऐसे दुखद मौकों पर सियासत करने के लिये मैदान में कूद पड़ते हैं और फिर न जाने कहां चले जाते हैं। ऐसे बयान बहादुरों से न तो देश का भला होता है, न जनता को कोई फायदा पहुंचता है। मगर, यह नेता समझने को तैयार ही नहीं हैं कि समय बदल गया है।
बात बीते दिनों दर्जनों बच्चों की मौत को लेकर चर्चा में आए गोरखपुर मेडिकल कॉलेज की कि जाये तो यहां भी कुछ ऐसे ही हालात पैदा कर दिये गये हैं। यहां तमाम दलों के नेताओं का जमावड़ा लगा। योगी आदित्यनाथ भी पहुंचे और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा भी। इससे पहले योगी के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह भी पूरा मामला समझने आये थे, लेकिन वह मीडिया से रूबरू होते समय ऐसे आंकड़ों में उलझे कि योगी सरकार की किरकिरी ही करा बैठे। गोरखपुर से योगी का जुड़ाव सब जानते हैं। वह यहां के प्रतिनिधि ही नहीं हैं। गोरखधाम के प्रमुख भी है। योगी की यहां बारीक पकड़ है। वह उस मेडिकल कालेज में तमाम बार जा चुके हैं जो आजकल चर्चा में है। दर्जनों बच्चों की मौत के बाद गोरखपुर पहुंचे योगी ने यह बात सबको समझाने की पूरी कोशिश की कि वह तो इस बीमारी के खिलाफ कब से मुहिम चलाये हुए हैं। मेडिकल कॉलेज का दौरा करने के बाद सीएम योगी ने दोषी लोगों के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई की बात कही, जिस पर अविश्वास की कोई वजह नहीं हो सकती है। वह अपेक्षा के अनुरूप भी है, लेकिन आवश्यकता इसकी बात की भी है कि पूरे प्रकरण की जांच तो हो ही आगे से ऐसी घटना कहीं और न दोहराई जाये, इसके लिये अभी से सख्त कदम उठाये जायें। अफसोस तो इस बात का भी है कि चार दिन पहले ही मुख्यमंत्री मेडिकल कॉलेज का निरीक्षण करके आये थे। स्पष्ट है कि वह उस अव्यवस्था से अवगत नहीं हो सके जो वहां व्याप्त थी। सार यही है कि सीएम योगी यहां के स्टाफ का शातिराना व्यवहार समझ नहीं पाये।
दरअसल, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ऐसे निरीक्षण ज्यादा सफल नहीं रहते हैं। इसीलिए जरूरत औचक अथवा औपचारिक निरीक्षण की नहीं, बल्कि व्यवस्था में मूलभूत सुधार की है, जिसके लिये सबको मिल जुलकर कर प्रयास करना होगा। यह दुखद है कि एक ओर तो अपने देश में सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की दशा बहुत दयनीय है और दूसरी ओर पिछले कई वर्षों में इस ढांचे को भ्रष्टाचार का घुन खोखला किये जा रहा है। एनएचआरएम घोटाला इसकी सबसे बड़ी बानगी है, जिसमें कई मंत्री और नेता फंसे हुए हैं।
इससे भी संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि जगह−जगह नये एम्स बन जायें। हर कोई जानता और समझता है कि मौजूदा एम्स वह चाहे दिल्ली का हो या अन्य शहरों का, तमाम समस्याओं से घिरे हुए हैं। यहां भी मरीजों को लम्बी वेटिंग से जूंझना पड़ता है। तमाम मरीज तो इलाज के इंतजार में ही दम तोड़ देते हैं। देश की राजधानी दिल्ली स्थित एम्स में गंभीर बीमारी से ग्रस्त तमाम मरीजों को ऑपरेशन के लिए दो−दो साल बाद की तिथि मिल़ रही है। जब दिल्ली के एम्स में यह स्थिति हो तब फिर देश के अन्य हिस्सों में एम्स का क्या हाल होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। नामी अस्पतालों से हटकर नीचे देखा जाये तो तमाम सरकारी अस्पतालों अथवा मेडिकल कॉलेजों कि स्थिति तो और भी बदतर है। प्राइमरी हेल्थ सेंटरों को तो उससे भी बुरा हाल है। यहां तो डॉक्टर ही नहीं मिलते हैं। सरकारी अस्पताल आम तौर पर अव्यवस्था के पर्याय बनते जा रहे हैं, जिसका फायदा उठाकर निजी अस्पताल मालामाल हो रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में कदम−कदम पर मरीजों की उपेक्षा−अनदेखी आम बात है। इससे भी अफसोस की बात यह है इन सरकारी अस्पतालों के आसपास ऐसे दलाल टहलते रहते हैं जो दूर−दराज से आये मरीजों को बहला−फुसला कर अपने यहां ले जाते हैं और अक्सर मोटी कमाई करके उन्हें असहाय छोड़ देते हैं। इन दलालों का पूरा नेटवर्क काम करता है जिसे स्वास्थ्य विभाग के बड़े अधिकारी हमेशा अनदेखा करते हैं तो तमाम डॉक्टर इनको शह देते हैं।
कई बार तो ऐसा लगता है कि धरती का यह भगवान शैतान बन गया है। पूरा का पूरा चिकित्सीय तंत्र सेवा भाव से ही विमुख हो गया है। यह पहली बार नहीं है जब मेडिकल कॉलेज में अव्यवस्था−अनदेखी से मरीजों की अस्वाभाविक मौत के बाद हंगामा हो रहा है, लेकिन इससे कभी सबक नहीं लिया गया। चाहे केंद्र सरकार हो अथवा राज्य सरकारें, वे स्वास्थ्य तंत्र में सुधार का कोई ऐसा उदाहरण पेश नहीं कर पा रही हैं जो सरकारी स्वास्थ्य ढांचे के लिए अनुकरणीय साबित हो सके।
किसी भी अस्पताल में गंभीर बीमारी से ग्रस्त मरीजों की मौतें होना स्वाभाविक है, लेकिन दुख तब होता है जब मौत की वजह लापरवाही होती है। ऐसी मौतों के पीछे की लापरवाही पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज की घटना उत्तर प्रदेश सरकार के साथ−साथ केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोगों के लिये कुछ और सख्त कानून बनाये जायें। इसके साथ−साथ जो कानून ताक पर रख दिये गये हैं उन्हें भी प्रयोग में लाया जाये, ताकि भविष्य में इस तरह की मौतें नहीं हों। पूरी दुनिया में मां−बाप के सामने बच्चे की अर्थी उठने से बड़ा कोई गम हो ही नहीं सकता है। बच्चों की मौत क्यों हुई इसकी जांच करके जल्द से जल्द दोषियों को जेल की सलाखों के पीछे भेजना योगी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। बच्चों की ऐसी दर्दनाक मौतों पर सियासत करने वालों को भी कम से कम भगवान से तो डरना ही चाहिए।
यह है जापानी एनसेफेलाइटिस
गोरखपुर में दर्जनों मौत की वजह बना जापानी एनसेफेलाइटिस बुखार संक्रमित मच्छरों के काटने से होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस से संक्रांत पालतू सूअर और जंगली पक्षियों के काटने पर मच्छर संक्रांत हो जाते हैं। इसके बाद संक्रांत मच्छर पोषण के दौरान जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस काटने पर मानव और जानवरों में जाते हैं। जापानी एनसेफेलाइटिस के वायरस का संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं होता है। उदारहण के लिए आपको यह वायरस किसी उस व्यक्ति को छूने या चूमने से नहीं आ सकता जिसे यह रोग है या किसी स्वास्थ्य सेवा कर्मचारी से जिसने किसी इस प्रकार के रोगी का उपचार किया हो। केवल पालतू सूअर और जंगली पक्षी ही जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस फैला सकते हैं।
बात इसके लक्षणों की कि जाये तो यह सिर दर्द के साथ बुखार को छोड़कर हल्के संक्रमण में और कोई प्रत्यक्ष लक्षण नहीं होता है। गंभीर प्रकार के संक्रमण में सिरदर्द, तेज बुखार, गर्दन में अकड़न, घबराहट, कोमा में चले जाना, कंपकंपीं, कभी−कभी ऐंठन (विशेष रूप से छोटे बच्चों में) और मस्तिष्क निष्क्रिय (बहुत ही कम मामले में), पक्षाघात होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस की संचयी कालवधि सामान्यतः 5 से 15 दिन होती है। इसकी मृत्युदर 0.3 से 60 प्रतिशत तक है।
इस बुखार की कोई विशेष चिकित्सा नहीं है। यह रोग अलग अलग देशों में अलग अलग समय पर होता है। क्षेत्र विशेष के हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले, वहां प्रतिनियुक्त सक्रिय ड्यूटी वाले सैनिक और ग्रामीण क्षेत्रों में घूमने वालों को यह बीमारी अधिक होती है। शहरी क्षेत्रों में जापानी एनसेफेलाइटिस सामान्यतः नहीं होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस के लिए भारत में निष्क्रिय मूसक मेधा व्युत्पन्न (इनएक्टीवेटेड माउस ब्रेन−डिराइव्ड जेई) जापानी एनसेफेलाइटिस टीका उपलब्ध है।
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