मोदी-जेटली ने कर दिखाया तो मनमोहन-चिदंबरम को हजम नहीं हुआ
वैश्विक एजेंसियों की रैंकिंग या रेटिंग का कई सन्दर्भों में महत्व होता है। रिपोर्ट नकारात्मक हुई तो सुधार का मनोवैज्ञानिक दबाव बनता है। सकारात्मक होने पर निवेश का माहौल बनता है। संबंधित देश की कम्पनियों को ऋण मिलना आसान हो जाता है। विदेशी निवेशकों का ऐसी सकारात्मक रिपोर्ट से विश्वास बढ़ता है। सरकार के लिए ढांचागत क्षेत्र की जरूरत पूरा करना आसान हो जाता है क्योंकि इसके लिए धन जुटाना आसान हो जाता है। पिछले तीन वर्षों से चल रहे सुधार के प्रयासों के सकारात्मक परिणाम आ रहे हैं। वैश्विक एजेंसियां इसी को दिखा रही हैं। वित्तीय अनुशासन बढ़ा है। आर्थिक क्षेत्र में मजबूती और स्थिरता आ रही है। ये बातें अर्थवयवस्था को मजबूत बनाने में सहायक होती हैं। ऐसे में इसकी दलगत सीमा से ऊपर उठकर तारीफ होनी चाहिए। लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो सका। यहां विपक्ष ने विश्व बैंक की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस संबंधी और भारत की रैंकिंग बढ़ने संबंधी मूडीज की रिपोर्ट को खारिज कर दिया क्योंकि इसमें भारत के कदमों की सराहना की गई थी। मूडीज की भारत पर जारी ताजा रिपोर्ट के कुछ दिलचस्प पहलू हैं। एक यह कि उसने भारत पर तेरह वर्ष से चल रहा मौन समाप्त किया। दूसरा यह कि इस दौरान दस वर्षों तक मनमोहन सिंह की सरकार थी, जो खुद अपने मौन के लिए विख्यात थे। तीसरा यह कि तेरह वर्ष पहले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार थी। इस बार जब बढ़ोत्तरी की रिपोर्ट आई तब नरेंद्र मोदी राजग सरकार चला रहे हैं। इन तथ्यों का क्या निहितार्थ निकाला जा सकता है। यह क्यों न माना जाए कि बीच के दस वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था के लिहाज से निराशाजनक थे। जबकि देश की अन्य किसी सरकार में इतने विद्वान अर्थशास्त्री नहीं थे। प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री रहे पी. चिदम्बरम विश्व स्तरीय अर्थशास्त्री माने जाते हैं। आर्थिक दृष्टि से ऐसी विलक्षण सरकर संसदीय प्रजातन्त्र में दुर्लभ होती है। फिर भी इस अवधि की व्यवस्था घोटालों में उलझ कर रह गई थी। आखिरी तीन वर्ष सर्वाधिक खराब थे। इस दौरान नीतिगत पंगुता चरम पर थी। सरकार खुद निवेश बढ़ने की उम्मीद छोड़ चुकी थी। अनौपचारिक रूप से मान लिया गया था कि अब अगली सरकार ही कोई बड़ा बदलाव करेगी जिससे नीतिगत पंगुता दूर होगी।
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