जाति व्यवस्था पर बहस जारी है

जातिवाद को लेकर भारत में बहुत बवाल खड़ा किया जाता रहा है। खासकर तथाकथित जातिवादी व्यवस्था की आड़ में सनातन हिंदू धर्म को बदनाम किए जाने का कुचक्र भी बढ़ा है। देशी और विदेशी लोग इस बुराई को लेकर मोटी-मोटी किताब लिख चुके हैं, लेकिन क्या वे यह जानते हैं कि प्रत्येक धर्म और राष्ट्र में इस तरह की बुराइयाँ पाई जाती है। क्या उन्होंने सामाजिक विज्ञान पढ़ा है? क्या वे जातियों की उत्पत्ति का सिद्धांत जानते हैं? सभी धर्म के लोगों में ऊँच-नीच की भावनाएँ होती है किंतु धर्म का इससे कोई संबंध नहीं होता।
श्रुति अर्थात वैदिक काल में यक्ष और रक्ष दो तरह के समाज होते थे। यक्ष देव कहलाए और रक्ष राक्षस। यही सुर और असुर कहलाने लगे। कालांतर में इन्हें ही आर्य और अनार्य कहा जाने लगा। जहाँ तक सवाल जाति का है तो जातियों के प्रकार अलग होते थे जिनका सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं था। जातियाँ होती थी द्रविड़, मंगोल, शक, हूण, कुशाण आदि। आर्य जाति नहीं थी बल्कि उन लोगों का समूह था जो कबिलाई संस्कृति से निकलकर सभ्य होने के प्रत्येक उपक्रम में शामिल थे और जो सिर्फ वेद पर ही कायम थे।
कालांतर में यह भी देखने को मिलता है कि भारत में ब्राह्मण और श्रमण नामक से दो तरह की विचारधाराएँ प्रचलित रही। ब्राह्मण मानते थे कि ईश्वर एक ही है जिसे ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म निराकार है। ब्राह्मण विचारधारा मानती है कि ईश्वर की इच्छा से ही मोक्ष प्राप्त होता है। यह संसार ईश्वर की इच्छा के अधिन है। श्रमण मानते हैं कि व्यक्ति के जीवन में श्रम की आवश्यकता है। श्रम से ही शक्ति और सुविधा अर्जित की जाती है तथा श्रम से ही मोक्ष को पाया जा सकता है।
रंगों का सफर कर्म से होकर आज की तथाकथित जाति पर आकर पूर्णत: विकृत हो चला है। अब इसके अर्थ का अनर्थ हो गया है। आर्य किसी जाति का नाम नहीं था। आर्य नाम की कोई जाति नहीं थी। आर्य काल में ऐसी मान्यता थी कि जो श्वेत रंग का है वह ब्राह्मण, जो लाल रंग का है वह क्षत्रिय, जो काले रंग का है वह क्षुद्र और जो मिश्रित रंग का होता था उसे वैश्य माना जाता था। यह विभाजन लोगों की पहचान और मनोविज्ञान के आधार पर किए जाते थे। इसी आधार पर कैलाश पर्वत की चारों दिशाओं में लोगों का अलग-अलग समूह फैला हुआ था।
काले रंग का व्यक्ति भी आर्य होता था और श्वेत रंग का भी। विदेशों में तो सिर्फ गोरे और काले का भेद है किंतु भारत देश में चार तरह के वर्ण (रंग) माने जाते थे। श्वेत लोगों का समूह श्वेत लोगों में ही रोटी और बेटी का संबंध रखता था। पहले रंग, नाक-नक्क्ष और भाषा को लेकर शुद्धता बरती जाती थी। किसी कबीले, समाज या अन्य भाषा का व्यक्ति दूसरे कबीले की स्त्री से विवाह कर लेता था तो उसे उस कबीले, समाज या भाषायी लोगों के समूह से बहिष्कृत कर दिया जाता था। उसी तरह जो कोई श्वेत रंग का व्यक्ति काले रंग की लडक़ी से विवाह कर लेता था तो उस उक्त समूह के लोग उसे बहिष्कृत कर देते थे। कालांतर में बहिष्कृत लोगों का भी अलग समूह बनने लगा। लेकिन इस तरह के भेदभाव का संबंध धर्म से कतई नहीं माना जा सकता। यह समाजिक मान्यताओं का हिस्सा हैं।
कालांतर में वर्ण अर्थात रंग का अर्थ बदलकर कर्म होने लगा। स्मृति काल में कार्य के आधार पर लोगों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या क्षुद्र कहा जाने लगा। ज्ञान प्राप्त कर ज्ञान देने वाले को ब्राह्मण, क्षेत्र का प्रबंधन और रक्षा करने वाले को क्षत्रिय, राज्य की अर्थव्यवस्था व व्यापार को संचालित करने वाले को वैश्य और राज्य के अन्य कार्यो में दक्ष व्यक्ति को क्षुद्र अर्थात सेवक कहा जाने लगा। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार कुछ भी हो सकता था।

योग्यता के आधार पर इस तरह धीरे-धीरे एक ही तरह के कार्य करने वालों का समूह बनने लगा और यही समूह बाद में अपने हितों की रक्षा के लिए समाज में बदलता गया। उक्त समाज को उनके कार्य के आधार पर पुकारा जाने लगा। जैसे की कपड़े सिलने वाले को दर्जी, कपड़े धोने वाले को धोबी, बाल काटने वाले को नाई, शास्त्री पढऩे वाले को शास्त्री आदि।

ऐसे कई समाज निर्मित होते गए जिन्होंने स्वयं को दूसरे समाज से अलग करने और दिखने के लिए नई परम्पराएँ निर्मित कर ली। जैसे कि सभी ने अपने-अपने कुल देवता अलग कर लिए। अपने-अपने रीति-रिवाजों को नए सिरे से परिभाषित करने लगे, जिन पर स्थानीय संस्कृति का प्रभाव ही ज्यादा देखने को मिलता है। उक्त सभी की परंपरा और विश्वास का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं।

ऋग्वेद, रामायण एवं श्रीमद्भागवत गीता में जन्म के आधार पर ऊँची व निचली जाति का वर्गीकरण, अछूत व दलित की अवधारणा को वर्जित किया गया है। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (90.12), व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोक (13), (41) में मिलता है।

ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। इनमें से एक के भी नाम के आगे जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ है जैसा की वर्तमान में होता है-चतुर्वेदी, सिंह, गुप्ता, अग्रवाल, यादव, सूर्यवंशी, ठाकुर, धनगर, शर्मा, अयंगर, श्रीवास्तव, गोस्वामी, भट्ट, बट, सांगते आदि। वर्तमान जाति व्यवस्था के मान से उक्त सभी ऋषि-मुनि किसी भी जाति या समाज के हो सकते हैं।

अगर ऋग्वेद की ऋचाओं व गीता के श्लोकों को गौर से पढ़ा जाए तो साफ परिलक्षित होता है कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था का कोई आधार नहीं है। मनुष्य एक है। जो हिंदू जाति व्यवस्था को मानता है वह वेद विरुद्ध कर्म करता है। धर्म का अपमान करता है। सनातन हिंदू धर्म मानव के बीच किसी भी प्रकार के भेद को नहीं मानता। उपनाम, गोत्र, जाति आदि यह सभी कई हजार वर्ष की परंपरा का परिणाम है।

श्लोक :जन्मना जायते क्षुद्र, संस्काराद् द्विज उच्यते। -मनुस्मृति
भावार्थ : महर्षि मनु महाराज का कथन है कि मनुष्य क्षुद्र के रूप में उत्पन्न होता है तथा संस्कार से ही द्विज बनता है।
व्याख्या : मनुष्य जन्म से ही क्षुद्र अर्थात छोटा होता है लेकिन अपने संस्कारों से ही वह द्विज अर्थात दूसरा जन्म धारण करता है। दूसरे जन्म से तात्पर्य वह वैश्य, क्षत्रिय या ब्रह्मण बनता है या इनसे भी श्रेष्ठ वह ऋषि हो जाता है।
मनुस्मृति का वचन है- विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यत:। अर्थात् ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से। जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया।

अत: जाति-व्यवस्था की संकीर्णता छोड़ दें। गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार ही वर्ण का निर्णय होना होता है, जिसे जाति मान लिया गया है। वर्ण का अर्थ समाज या जाति से नहीं वर्ण का अर्थ स्वभाव और रंग से माना जाता रहा है।

स्मृति के काल में कार्य का विभाजन करने हेतु वर्ण व्यवस्था को व्यवस्थित किया गया था। जो जैसा कार्य करना जानता हो, वह वैसा ही कार्य करें, जैसा की उसके स्वभाव में है तब उसे उक्त वर्ण में शामिल समझा जाए। आज इस व्यवस्था को जाति व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था समझा जाता है।

कुछ व्यक्ति योग्यता या शुद्धाचरण न होते हुए भी स्वयं को ऊँचा या ऊँची जाति का और पवित्र मानने लगे हैं और कुछ अपने को नीच और अपवित्र समझने लगे हैं। बाद में इस समझ को क्रमश: बढ़ावा मिला मुगल काल, अंग्रेज काल और फिर भारत की आजादी के बाद भारतीय राजनीति के काल में जो अब विराट रूप ले चुका है। धर्मशास्त्रों में क्या लिखा है यह कोई जानने का प्रयास नहीं करता और मंत्रों तथा सूत्रों की मनमानी व्याख्या करता रहता है।

हमारे यहाँ अनेकों जाति की अब तो अनेक उपजातियाँ तक बन गई है। तथाकथित ब्राह्मण समाज में ही दो हजार आंतरिक भेद माने गए हैं। केवल सारस्वत ब्राह्मणों की ही 469 के लगभग शाखाएँ हैं। क्षत्रियों की 990 और वैश्यों तथा क्षुद्रों की तो इससे भी अधिक उपजातियाँ है। अपने-अपने इस संकुचित दायरे के भीतर ही विवाह होते रहते हैं। जिसका परिणाम यह हुआ है कि भारत की सांस्कृतिक एकता टूट गई। जब कोई एकता टूटती है तभी उसको जोडऩे के प्रयास भी होते हैं।

 

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