जनता की अदालत में इन राजनीतिक दलों का फैसला अभी बाकी है
चुनाव आयोग ने जो 48 से 72 घंटों तक इन नेताओं के चुनाव प्रचार करने पर प्रतिबंध लगाकर जो “सख्ती” दिखाई है वो कितनी असरदार रही ये तो चुनाव आयोग के इस “सख्त फैसले” के तुरंत बाद नवजोत सिंह सिद्धू के बयानों ने साफ कर दिया है। ना सिर्फ वे बिहार की एक सभा में मुसलमानों को एकजुट होकर मतदान करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं बल्कि गुजरात की सभा में तो प्रधानमंत्री पर हमले करते हुए वे भाषा की मर्यादा तक लांघ रहे हैं। वहीं राजस्थान के मुख्यमंत्री देश के राष्ट्रपति के पद तक को जातिगत राजनीति में लपेटने की कोशिश करते दिख रहे हैं। तो पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश के कलाकार तृणमूल कांग्रेस का प्रचार करते पाए जाते हैं। चुनावी राजनीति में जिस प्रकार के आचरण का आज देश साक्षी हो रहा है स्पष्ट है कि चुनावी आचार संहिता तो दूर की बात है व्यक्तिगत नैतिक आचरण की संहिता भी भुला दी गई है। राजनैतिक प्रतिद्वंतिता की जगह अब सियासी दुश्मनी ने ले ली है। जिन राम मनोहर लोहिया की विरासत को आगे बढ़ाने के नाम पर ये राजनैतिक दल अपनी राजनैतिक रोटियां सेकतें हैं, उनका कहना था कि लोकराज लोकलाज से चलता है लेकिन इन्होंने तो लोकलाज को भी ताक पर रख दिया है। ऐसे माहौल में जब नेताओं में आत्म संयम लुप्त हो गया हो और कानून का डर बचा ना हो तो राजनैतिक शुचिता को बचाने के लिए कुछ ठोस और बुनियादी कदम तो उठाने ही होंगे।
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