विदेशी धरती पर आजादी की अलख
टोरंटो – देश में स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन की रणनीति पर गंभीर विचार-विमर्श के लिए भी विदेशी धरती का प्रयोग हुआ। देश के बाहर रहकर भी आजादी के लिए काम करने वाले लोगों ने न केवल वहां बैठकर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाया बल्कि कई बार अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह की योजनाओं को भी अमलीजामा पहनाया। यह कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास विदेश में बसे भारतीयों के योगदान के उल्लेख के बिना अपूर्ण ही रहता है। विदेशों में भारतीय स्वतंत्रता के प्रयासों ने बीसवीं सदी की शुरुआत में एक संगठित स्वरूप लेना शुरू किया।
ब्रिटिश उपनिवेशों में उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही अफ्रीकी गुलामों से मुक्त श्रम के मसले पर उठे विवाद के बाद इन स्थानों पर भारतीय कामगारों को भेजा जाने लगा। सन् 1837 से विदेशों में जाना शुरू करने वाले भारतीयों की संख्या 1915 तक करीब पैंतीस लाख तक पहुंच चुकी थी। कैनेडा , कैलीफोर्निया, वेंकूवर और अमेरिका के दूसरे हिस्सों सहित चीन, जापान, हांगकांग, मलेशिया और थाईलैंड में प्रवासी भारतीयों की संख्या अछी खासी हो चुकी थी। इनमें से विशेषत: कैलीफोर्निया तो ब्रिटिश राज के विरोध का सबसे प्रमुख स्थल बन गया था। विदेशों में ब्रितानी विरोध की शुरुआत पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से हुई।
विदेशी धरती पर एक बंगाली विद्यार्थी तारक नाथ दास द्वारा सबसे पहले 1909 में एक मासिक पत्रिका ‘फ्री हिन्दुस्तानÓ निकाली गयी। इस पत्रिका की विषयवस्तु ब्रिटिश राज में सताए जा रहे हिन्दुस्तानियों पर केन्द्रित थी। तारक नाथ को कैनेडा से आपत्तिजनक गतिविधियों के आरोप में निर्वासित कर दिया गया और सेनफ्रांसिस्को में उन्हें कैद भी हुई। लेकिन ‘फ्री हिन्दुस्तानÓ की लोकप्रियता को देखते हुए विदेशी जमीन पर दो और पत्र ‘आर्यनÓ और ‘स्वदेश सेवकÓ निकाले गये। इन दोनों पत्रों ने भी विषय और विचार के मामले में ‘फ्री हिन्दुस्तानÓ का ही अनुसरण किया। इन प्रकाशनों से जुड़े व्यक्तियों में एक जाना पहचाना नाम था लाला हरदयाल। लाला हरदयाल गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षित एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी थे, जिन्हें आक्सफोर्ड जाने के लिए अंग्रेज सरकार ने ही वजीफा दिया था। बाद में लाला जी ने भारतीयों पर अत्याचार करने वाली सरकार से पैसा लेना स्वीकार नहीं किया।
लाला हरदयाल और उनके साथी हिन्दुस्तान की आजादी के लिए एक सशस्त्र क्रांति के पक्षधर थे। हरदयाल ने देश छोडक़र विदेश गये करीब पांच हजार नौजवानों को अपनी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से इस विचार के पक्ष में एकत्र करने का प्रयास किया। लाला हरदयाल ने मैडम भीकाजी कामा के आर्थिक सहयोग से चलने वाले पत्र ‘वंदे मातरम्Ó का भी संपादन किया। लाला हरदयाल ने अपने पत्रों द्वारा उन नौजवानों को लक्ष्य बनाया जो भारत से आने के बाद खुले विचारों के समर्थक बने और अन्याय के खिलाफ खड़े होने को तैयार थे। लालाजी ने वंदे मातरम् के माध्यम से करीब चार साल तक अलख जगाई।
‘वंदे मातरम्Ó के ही समय में दो उर्दू पत्रिकाएं ‘इस्लामिक फ्रैटर्निटीÓ और ‘अल-इस्लामÓ भी प्रवासी भारतीयों के बीच अछी संख्या में पहुंच रही थीं। इनके प्रकाशन का जिम्मा मोहम्मद मौलवी बरकतुल्लाह ने उठाया था जो टोकियो विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर थे। बरकतुल्लाह ने हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई को व्यापक मकसद से जोडऩे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अपने लेखन में मुक्त एशिया को विषय बनाया और इसमें तुर्की को ब्रिटिश प्रभाव से मुक्त कराने का मसला भी शामिल किया। जापानी लोगों के साथ तुर्की के सुल्तान और अफगानिस्तान के अमीर ने भी इस काम में उनका काफी सहयोग किया।
शुरुआती कोशिशों के बाद अपनी लेखनी से भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना योगदान देने वाले इन लोगों ने आमने-सामने की लड़ाई की भी भूमिका लिखनी प्रारंभ की। लाला हरदयाल, प्रोफेसर बरकतुल्लाह और जाने माने क्रांतिकारी जतिंदर नाथ की कोशिशों से ही सन् 1912 में एस्टोरिया में गदर पार्टी का गठन हुआ। गदर पार्टी के सात संस्थापक सदस्यों में रतन सिंह, करतार सिंह, वाला सिंह, संतोख सिंह और जगत राम प्रमुख थे। गदर पार्टी को मूल रूप से प्रशांत महासागरीय तट के हिन्दुओं के संगठन के रूप में ही जाना गया लेकिन इसने देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए। इस संगठन ने एक नवम्बर 1913 से एक साप्ताहिक पत्र ‘गदरÓ का प्रकाशन भी शुरू किया। यह पत्र सेन फ्रांसिस्को से प्रकाशित होता था। पहले इसे उर्दू और गुरुमुखी में प्रकाशित किया गया लेकिन बाद में कई अन्य भाषाओं में भी इसका प्रकाशन हुआ। इस पत्र को भारत और दुनिया के उन देशों में पहुंचाने की जबरदस्त कोशिशें की गयीं जहां प्रवासी भारतीय रहते थे। इसकी सैकड़ों प्रतियां शंघाई, हांगकांग और कई दूसरे रास्तों से भारत पहुंचती थीं। गदर की लोकप्रियता काफी बढ़ी और इसमें छपने वाली ग्रंथी भगवान सिंह की क्रांतिकारी कविताओं ने दुनिया भर में फैले भारतीयों के हृदय में स्वतंत्रता प्राप्ति की तीव्रता का भाव जगाने में खासी कामयाबी भी पायी। विदेश में रहकर देश की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाले लोगों का जिक्र हो तो मैडम भीकाजी कामा का उल्लेख अति महत्वपूर्ण है। मैडम कामा ही वो महिला थीं जिन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान औपचारिक रूप से स्वतंत्र भारत के निर्माण की भूमिका तैयार की थी। मैडम कामा ही थीं जिन्होंने जर्मनी के स्टुटगर्ट शहर में सन् 1907 में एक अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में दुनिया के कई देशों से आए हजारों प्रतिनिधियों के समक्ष भारत का ध्वज फहराया।
Comments are closed.