एक नई जीवनशैली की आदत डालनी होगी
ललित गर्ग
कोविड-19 की महामारी एवं कहर ने सबकुछ बदल दिया है। जो पहले हमारी जीवन का अपरिहार्य हिस्सा था, वह सबकुछ अब एक अलग दुनिया की चीज हो गयी है। एक बड़ा प्रश्न है कि हम कब अपनी पहले वाली जीवनशैली की ओर लौटेंगे। क्या लॉकडाउन में ढील दिए जाने या खत्म होने के बाद जीवनशैली फिर पुराने ढर्रे पर लौटेगी? क्या हम कोविड-19 से पहले की तरह बाहर जा पाएंगे? क्या पहले ही तरह माॅल-सिनेमा जा पाएंगे, क्या कोई पार्टी होगी, क्या कोई लॉन्ग ड्राइव होगा, कोई प्रवचन, धर्मसभा या मन्दिरों के दर्शन होंगे? क्या निकट भविष्य में सड़कों पर भीड़, खचाखच भरा सार्वजनिक परिवहन, रेलवे स्टेशन पर जबरदस्त भीड़, बस अड्डों पर लोगों की कतारें, एयरपोर्ट पर लोगों की भीड़, ऑफिस, कैंटीन्स, रेस्तरां, शॉपिंग मॉल्स, रिक्शा में बच्चे, स्कूल में बच्चे और भी कई दृश्य हैं जिनके बिना जीवन असंभव-सा लगता है। लेकिन हमें अभी लम्बे समय तक ऐसे ही जीवन की आदत को बरकरार रखना होगा। यह हमारे लिये परीक्षा की घड़िया है, बड़ी चुनौती है। कोरोना महासंकट की विजय गाथा को रचते हुए हमें इस विश्वास को जिन्दा करना होगा कि कोरोना की चुनौतियों को देखकर हम डर कर विपरीत दिशा में नहीं, बल्कि उसकी तरफ भागंें। क्योंकि डरना आसान है, पर जितनी जल्दी हम चुनौतियों को अपने पैरों तले ले आयेंगे, उतनी जल्दी हम इस डर से मुक्त हो जायेंगे, जीवन के असंभव हो गये अध्यायों को संभव कर पाएंगे। अभी हमारे सामने अंधेरा ही घना है, निराशा के बादल ही मंडरा रहे हैं। क्योंकि जो भी मौजूदा संकेत हैं, उनसे यही पता चलता है कि कोविड-19 का वैक्सीन और इलाज अभी तक मिला नहीं है, उसके मिलने तक शहरी लोगों का जीवन लॉकडाउन के दौरान वाला ही होगा। भले ही चाहे प्रतिबंधों को हटा ही क्यों न दिया जाए। और कई जगह यह छह माह से एक साल तक रहने वाला है। अभी हम घर के अंदर रहने वाली दुनिया में हैं। घर से काम कर रहे हैं। जरूरी चीजों की खरीददारी के लिए भले ही चेहरा और नाक ढके घर से बाहर निकल रहे हैं। फिर भी सोशल डिस्टेसिंग एवं आत्मसंयम ही जीवन का हिस्सा बने रहने वाला है। कोरोना महामारी एक तात्कालिक, वास्तविक और विराट त्रासदी है, एक महाप्रकोप है, जो हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और दुनिया के स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना महामारी जल्द खत्म होने वाली नहीं है। विशेषज्ञों तो यह भी कहना है कि इसके नियंत्रित होने या थम जाने के बाद भी हमें बदले तरीके से ही जीवन को जीना होगा। इस संकट ने कई जीवन-मानक एवं सोच के दायरे बदल दिये हंै। अपनी रोजमर्रा की खुशियों से पहले उनके जोखिम का आकलन जरूरी हो गया है। कौन वैज्ञानिक या डॉक्टर मन ही मन में किसी चमत्कार के लिए प्रार्थना नहीं कर रहा है? कौन पुजारी, तांत्रिक, धर्मगुरु हैं जो मन ही मन में विज्ञान के आगे समर्पण नहीं कर चुका है? और कोरोना वायरस के इस संक्रमण के दौरान भी कौन है जो पक्षियों के गीतों से भर उठे शहरों, चैराहों पर नृत्य करने लगे मयूरों, प्रकृति की खिलखिलाहट एवं आकाश की नीरवता पर रोमांचित नहीं है? बदल तो सब गया है। यह बदलाव ही है कि इस महामारी के कहर के दौर में एक गरीब इंसान की बीमारी एक अमीर समाज के स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रही है। बड़े-बड़े धनाढ्य एवं महाशक्तिशाली भी घुटने टेकते हुए दिखाई दिये। कई मोटीवेशनल लोग निकट भविष्य में ज्यादा समझ एवं सहयोग वाली दुनिया की उम्मीद कर रहे हैं तो दुनिया के अधिक संकीर्ण एवं स्वार्थी होने की संभावनाएं भी व्यक्त की जा रही है। शासन-व्यवस्था एवं प्रणालियों पर भी ग्रहण लगता हुआ दिखाई दे रहा है, महाशक्तियां निस्तेज एवं धराशायी होते हुए दिखाई दे रहे हैं, तानाशाही के पनपने एवं लोकतांत्रिक मूल्यों में बिखराव के भी संकेत मिल रहे हैं। कोरोना चुनौतियों के डर बहुत हैं। हम अपनी बंधी-बंधाई जिंदगी पर लगे घुन से परेशान और बेचैन हैं। अचानक हमारी ऊर्जा कम होने लगी है, काम करने का उत्साह घट गया है, आत्मविश्वास दरकने लगा है। साठ प्रतिशत लोग नई चुनौतियों के आगे कुछ ऐसा ही महसूस कर रहे हैं। यह अस्वाभाविक नहीं है। पर इससे बच कर भागना या हार मान जाना रास्ता नहीं है। हमें पहले से अपने को तैयार करना होगा कि हम एक ढर्रे पर ना चलें। नए की चुनौतियों को स्वीकार करें। क्योंकि वास्तव में जब वैक्सीन की खोज हो जाएगी तब भी इससे रोगियों को निरोगी करने में समय लगेगा। क्योंकि सबसे पहले हमें इसकी पर्याप्त मात्रा उपलब्ध करानी होगी। अगर कई दवा कंपनियां एकसाथ मिलकर काम करें और उसका उत्पादन करें तब भी धरती पर रहने वाले करीब 8 अरब लोगों को तुरंत इससे इम्युनिटी हासिल होना मुश्किल होगा। इसमें सालों लगेंगे। क्या कोई सरकार सबकुछ खोलने का खतरा मोल लेगी? यह संभव नहीं लगता। याद करिए 1918 के स्पैनिश फ्लू को। यह गर्मी के महीने में थम तो गया था लेकिन सर्दियों में इसका दूसरा वेव आ गया था। ऐसा ही कोरोना को लेकर संभव है, चीन में हमने देखा भी है। जापान के होक्काइदो में हमने देखा, जापान ने कोविड-19 जैसे आपात स्थिति से बेहतर तरीके से निपटा। इसने स्थिति पर अच्छे से नियंत्रण पाया और सभी प्रतिबंधों को हटा दिया। स्कूल फिर से खुल गए, रेस्तरां आम दिनों की तरह खुल गए, लेकिन कोविड-19 के दूसरे वेव ने जल्दी ही इस द्वीप पर ज्यादा ताकत से हमला किया और यहां पहले चरण की तुलना में ज्यादा सख्ती से लॉकडाउन लागू करना पड़ा।
हमारे सामने एक बड़ा सवाल है कि क्या हम ऐसी जिंदगी जी सकते हैं जो हमारे भूख का ख्याल रखे, लोलुपता का नहीं? हमारी जरूरतों का ख्याल रखे, लालच का नहीं? क्या हम शहरों में साईकल से आ-जा सकते हैं? क्या हम घरों से काम करने की पद्धति को प्रोत्साहन दे सकेंगे? अमेरिका की प्रथम महिला रही मिशेल ओबामा ने कहा भी था, ‘जिंदगी हमेशा सुविधाजनक नहीं होती। ना ही एक साथ सभी समस्याएं हल हो सकती हैं। इतिहास गवाह है कि साहस दूसरों को प्रेरित करता है और आशा जिंदगी में अपना रास्ता स्वयं तलाश लेती है।’ समस्या जितनी ही बड़ी होती है, उतनी बड़ी जगह उसे हम अपने मन में देते हैं। ये हमारी बड़ी दिक्कत है कि हमें बुरी बातें पहले दिखती हैं, अच्छी बाद में। हर विजेता के पास अपने आगे आने और चुनौतियों से निपटने की एक कहानी होती है। डर उन्हें भी लगता है। पर वे जल्दी से उसका मुकाबला करना सीख लेते हैं। हमारे सामने ऐसी स्थिति आ गई है, तो उससे भागने के बजाय अपने अंदर झांके, संयम, अनुशासन एवं परिष्कृत सोच का परिचय देते हुए समस्या के मूल को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़े। हर शताब्दी में एक महामारी ने इंसानी जीवन को संकट में डाला। प्लेग का इतिहास हमारे सामने है। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में आई ब्लैक डेथ की बीमारी ने यूरोप का नक्शा ही बदल दिया, लेकिन उस समय अंधेरों के बीच रोशनी की तलाश हुई। अनेक सामाजिक-आर्थिक एवं जीवनगत बदलाव हुए, सोचने-समझने एवं शासन-व्यवस्थाओं के तरीके अधिक लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक एवं जीवनमूल्यों पर आधारित बनाये गये। क्या हम कोरोना महामारी के सामने खड़े विश्व को बचाने के लिये एक मानवीय अर्थव्यवस्था, सादगी-संयममय जीवनशैली, प्रकृतिमय जीवन की ओर नहीं बढ़ सकते?
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