गणेशोत्सव पर गणपति का संदेश
मान्यता है श्रीकृष्ण की तरह आदिदेव गणपति ने भी संदेश दिए थे, जिन्हें गणेशगीता में पढ़ा जा सकता है। इस ग्रंथ में योगशास्त्र का विस्तार से वर्णन है, जो व्यक्ति को बुराइयों के अंधकार से अछाइयों के प्रकाश की ओर ले जाता है। 9 सितंबर से शुरू हो रहे गणेशोत्सव पर डॉ. अतुल टंडन का आलेख..
ब्रहमवैवर्तपुराण में स्वयं भगवान कृष्ण मंगलमूर्ति गणेशजी को अपने समतुल्य बताते हुए कहते हैं कि मात्र वे दोनों ही ईश्वर का पूर्णावतार हैं। यद्यपि ब्रšावैवर्तपुराण एक वैष्णव महापुराण है, लेकिन इसमें गणेशजी को इतना अधिक महत्व दिया गया है कि इस ग्रंथ का एक बहुत बड़ा भाग गणपतिखण्ड है, जिसमें भगवान गणेश के शिव-पार्वती के पुत्र होने की कथा, अनेक मंत्र-स्तोत्र तथा उनकी लीलाओं का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। श्रीगणेश और श्रीकृष्ण में एक बहुत बड़ा साम्य यह भी है कि दोनों ने गीता का उपदेश दिया है। ये दोनों गीताएं योगशास्त्र के गूढ़ ज्ञान से परिपूर्ण हैं, किंतु योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कही गई श्रीमद्भगवद्गीता तो विश्वविख्यात हो चुकी है, परंतु विघ्नेश्वर श्रीगणेश द्वारा उपदिष्ट गणेशगीता केवल गाणपत्य संप्रदाय के मध्य ही सीमित रह गई है।
जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के भीष्मपर्व का एक भाग है, उसी तरह श्रीगणेशपुराण के क्रीड़ाखंड के 138वें अध्याय से 148वें अध्याय तक के भाग को गणेशगीता कहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्यायों में 700 श्लोक हैं, तो गणेशगीता के 11 अध्यायों में 414 श्लोक हैं। भगवद्गीता का उपदेश महाभारत के युद्ध से पूर्व कुरुक्षेत्र की भूमि पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था, जबकि गणेशगीता का उपदेश युद्ध के पश्चात राजूर की पावनभूमि पर भगवान गणेश ने राजा वरेण्य को दिया था।
गणेशगीता में लगभग वे सभी विषय आए हैं, जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलते हैं। गणेशगीता में योगशास्त्र का जिस प्रकार मंथन करके ज्ञान-रूपी नवनीत दिया गया है, उसी तरह श्रीमद्भगवद्गीता में भी योगामृत सर्वसुलभ कराया गया है। इस कारण दोनों गीताओं के विषय और भाव एक-दूसरे से काफी मिलते-जुलते हैं। परंतु इन दोनों गीताओं में दोनों श्रोताओं की मन:स्थिति और परिस्थितियां पूर्णतया भिन्न हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय से स्पष्ट है कि स्वजनों के प्रति मोह के कारण अर्जुन संशयग्रस्त हो गया था। वह अपने कर्तव्य का भी ठीक निर्णय नहींकर पा रहा था। किंकर्तव्य-विमूढ़ता के कारण अर्जुन शिथिल होकर निष्क्रिय हो गया था। लेकिन गणेशगीता सुनते समय राजा वरेण्य मोहग्रस्त नहींथे, अपितु वे मुमुक्षु-स्थिति में थे। वे अपने धर्म और कर्तव्य को भलीभांति जानते थे, पर उनके मन में केवल एक ही पश्चाताप था। उन्हें मात्र यही खेद था कि मैं कैसा अभागा हूं कि स्वयं भगवान गणेश ने मेरे घर जन्म लिया, पर मैंने उन्हें कुरूप पुत्र समझकर त्याग दिया। यह तो अछा हुआ कि पराशर मुनि ने उस बालक का पालन-पोषण किया। इसी नौ वर्ष के बालक गजानन ने सिंदूरासुर का वध करके पृथ्वी को उसके आतंक और अत्याचार से मुक्त किया है। अब मैं उन्हीं गजानन (गणेश) के श्रीचरणों में आश्रय लूंगा।
राजा वरेण्य ने गजानन से प्रार्थना की-
विघ्नेश्वर महाबाहो सर्वविद्याविशारद।
सर्वशास्त्रार्थतत्वज्ञ योगं मे वक्तुमर्हसि॥
अर्थात हे महाबलशाली विघ्नेश्वर! आप समस्त शास्त्रों तथा सभी विद्याओं के तत्वज्ञानी हैं। मुझे मुक्ति पाने के लिए योग का उपदेश दीजिए।
इसके उत्तर में भगवान गजानन ने कहा-
सम्यग्व्यवसिता राजन् मतिस्तेकनुग्रहान्मम।
श्रृणु गीतां प्रवक्ष्यामि योगामृतमयीं नृप॥
अर्थात राजन! तुम्हारी बुद्धि उत्तम निश्चय पर पहुंच गई है। अब मैं तुम्हें योगामृत से भरी गीता सुनाता हूं।
ऐसा कहकर श्रीगजानन ने सांख्यसारार्थ नामक प्रथम अध्याय में योग का उपदेश दिया और राजा वरेण्य को शांति का मार्ग बतलाया। कर्मयोग नामक दूसरे अध्याय में गणेशजी ने राजा को कर्म के मर्म का उपदेश दिया। विज्ञानयोग नामक तीसरे अध्याय में भगवान गणेश ने वरेण्य को अपने अवतार-धारण करने का रहस्य बताया। गणेशगीता के वैधसंन्यासयोग नाम वाले चौथे अध्याय में योगाभ्यास तथा प्राणायाम से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातें बतलाई गई हैं। योगवृत्तिप्रशंसनयोग नामक पांचवें अध्याय में योगाभ्यास के अनुकूल-प्रतिकूल देश-काल-पात्र की चर्चा की गई है। बुद्धियोग नाम के छठे अध्याय में श्रीगजानन कहते हैं, अपने किसी सत्कर्म के प्रभाव से ही मनुष्य में मुझे (ईश्वर को) जानने की इछा उत्पन्न होती है। जिसका जैसा भाव होता है, उसके अनुरूप ही मैं उसकी इछा पूर्ण करता हूं। अंतकाल में मेरी (भगवान को पाने की) इछा करने वाला मुझमें ही लीन हो जाता है। मेरे तत्व को समझने वाले भक्तों का योग-क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूं।
उपासनायोग नामक सातवें अध्याय में भक्तियोग का वर्णन है। विश्वरूपदर्शनयोग नाम के आठवें अध्याय में भगवान गणेश ने राजा वरेण्य को अपने विराट रूप का दर्शन कराया। नौवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान तथा सत्व, रज, तम-तीनों गुणों का परिचय दिया गया है। उपदेशयोग नामक दसवें अध्याय में दैवी, आसुरी और राक्षसी-तीनों प्रकार की प्रकृतियों के लक्षण बतलाए गए हैं। इस अध्याय में गजानन कहते हैं-काम, क्रोध, लोभ और दंभ- ये चार नरकों के महाद्वार हैं, अत: इन्हें त्याग देना चाहिए तथा दैवी प्रकृति को अपनाकर मोक्ष पाने का यत्न करना चाहिए। त्रिविधवस्तुविवेक-निरूपणयोग नामक अंतिम ग्यारहवें अध्याय में कायिक, वाचिक तथा मानसिक भेद से तप के तीन प्रकार बताए गए हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता और गणेशगीता का आरंभ भिन्न-भिन्न स्थितियों में हुआ था, उसी तरह इन दोनों गीताओं को सुनने के परिणाम भी अलग-अलग हुए। अर्जुन अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने के लिए तैयार हो गया, जबकि राजा वरेण्य राजगद्दी त्यागकर वन में चले गए। वहां उन्होंने गणेशगीता में कथित योग का आश्रय लेकर मोक्ष पा लिया। गणेशगीता में लिखा है, जिस प्रकार जल जल में मिलने पर जल ही हो जाता है, उसी तरह ब्रšारूपी श्रीगणेश का चिंतन करते हुए राजा वरेण्य भी ब्रšालीन हो गए। गणेशगीता आध्यात्मिक जगत् का दुर्लभ रत्न है, गणेशोत्सव में गणेशगीता पर चर्चा और व्याख्यान होने से यह योगामृत सबको सुलभ हो सकेगा।
प्रथम पूजनीय श्रीगणेश
गणेश जी ऐसे देवता है, जिनकी पूजा-अर्चना हिंदू परिवारों के प्रत्येक धार्मिक आयोजनों में सबसे पहले की जाती है। गणेश जी की उत्पति और इनके प्रथम पूय होने के संबंध में विभिन्न पुराणों में अलग-अलग कथाएं मिलती हैं। हालांकि इनमें से कुछ ऐसी हैं, जिनमें विशेष संदर्भो में समानता है। गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस की रचना के प्रथम मंगल श्लोक में उनका स्मरण करते हुए कहते है- अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छंदों और मंगलों की रचना करने वाली सरस्वती और गणेश जी की मैं वंदना करता हूं।
प्रचलित कथा
श्रीगणेश की पूजा सबसे पहले क्यों की जाती है, इस संबंध में बहुत रोचक कथा प्रचलित है। एक बार भगवान शिव के समक्ष गणेश और कार्तिकेय दोनों भाइयों के बीच इस बात को लेकर विवाद हो गया कि दोनों में बड़ा कौन है। यह सुनकर भगवान शिव ने कहा किजो अपने वाहन के साथ सबसे पहले समस्त ब्रह्मांड की परिक्रमा करके मेरे पास लौट आएगा वही बड़ा माना जाएगा। यह सुनते ही भगवान कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर सवार ब्रह्मांड की परिक्रमा के लिए निकल पड़े। लेकिन भगवान गणेश ने अपने वाहन चूहे पर बैठ कर माता-पिता की परिक्रमा की और सबसे पहले उनके सामने हाथ जोडक़र खड़े हो गए। उन्होंने कहा कि मेरी परिक्रमा पूरी हो गई क्योंकि मेरा संसार मेरे माता-पिता में ही निहित है। बालक गणेश का यह बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर सुनकर भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें प्रथम पूय होने का वरदान दिया।
भगवान का गजानन स्वरूप
भगवान गणेश गजानन क्यों है? इस संबंध में यह कथा प्रचलित है कि जब माता पार्वती स्नान कर रही थीं तो उन्होंने द्वार के बाहर भगवान गणेश को पहरा देने के लिए बैठा रखा था कि वह किसी को भीतर न आने दें। इसी बीच भगवान शिव भीतर जाने लगे तो बालक गणेश ने उन्हे भीतर जाने से रोक दिया। इस बात पर शिव ने क्रोधित होकर उसका सिर काट दिया। बाद में जब उन्हे अपने इस कार्य के लिए पश्चाताप हुआ तो उन्होंने हाथी का सिर लगा कर उन्हे गजानन स्वरूप दिया।
इसी प्रकार गणपति का एक दांत टूटने के संबंध में ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथा मिलती है। एक बार परशुराम शिव के दर्शन के लिए कैलास गए। वहां श्रीगणेश द्वार की रक्षा कर रहे थे। परशुराम भीतर जाना चाहते थे पर गणेश ने उनको रोका। इस संघर्ष में परशुराम ने शिव का दिया हुआ परशु नामक अस्त्र उन पर चलाया। गणेश पिता द्वारा दिए गए अस्त्र का अपमान नहीं करना चाहते थे। अत: उस परशु को उन्होंने अपने एक दांत पर ले लिया, जिससे उनका एक दांत टूट गया।
महाभारत में इस बात का संदर्भ मिलता है कि महाभारत के रचयिता वेद व्यास द्वारा बोले गए शब्दों को लिपिबद्ध करके उसे ग्रंथ का रूप देने का काम श्रीगणेश ने ही किया था।
गणेश का जन्मोत्सव
स्कंद पुराण के अनुसार भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को भगवानं गणेश का अवतार हुआ था। इसीलिए इस दिन हर्षोल्लास के साथ गणेश चतुर्थी का त्योहार मनाया जाता है और दस दिनों के बाद अनंत चतुदर्शी के दिन धूमधाम के साथ गणपति का विसर्जन किया जाता है। दीपावली के अवसर पर भारत एवं कई अन्य देशों में हिंदू-धर्मावलंबी परिवारों में महालक्ष्मी जी और भगवान श्रीगणेश का पूजन होता है। महालक्ष्मी धन की देवी है। श्रीगणेश सभी विघ्नों के नाशक और सुंबुद्धि प्रदान करने वाले है। इसीलिए देवी लक्ष्मी के साथ हमेशा गणेश की भी पूजा की जाती है।
गणेश केवल भारत ही नहीं बल्कि जावा, बर्मा , चीन, जापान, तिब्बत, श्रीलंका, थाइलैंड आदि देशों में भी विभिन्न नामों से पूजनीय है।
विघ्नेश्वर हैं श्रीगणेश
भारतीय संस्कृति में श्रीगणेश जी का स्थान सर्वोपरि है। प्रत्येक शुभ कार्य में सबसे पहले भगवान गणेश की ही पूजा होती है। सनातन धर्म के हर ग्रंथ का यही संदेश है कि कोई भी काम करने से पहले सर्वप्रथम गणेशजी का पूजन करना चाहिए।
देवताओं के भी पूजनीय
देवता भी अपने कार्यो की निर्विध्न पूर्णता के लिए गणेश जी की अर्चना करते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि देवगणों ने स्वयं उनकी अग्रपूजा का विधान बनाया है। भगवान शंकर त्रिपुरासुर का वध करने में जब असफल हुए, तब उन्होंने गंभीरतापूर्वक विचार किया कि आखिर उनके कार्य में विघ्न क्यों पड़ा? महादेव को ज्ञात हुआ कि वे गणेशजी की अर्चना किए बगैर त्रिपुरासुर से युद्ध करने चले गए थे। इसके बाद शिवजी ने गणेशजी का पूजन करके उन्हें लड्डुओं का भोग लगाया और दोबारा त्रिपुरासुर पर प्रहार किया, तब उनका मनोरथ पूर्ण हुआ। इसी तरह महिषासुर संग्राम से पहले भगवती दुर्गा भी गणेश जी का स्मरण करना भूल गई थीं। जिसके कारण पहली बार में उन्हें सफलता नहीं मिली। फिर गणेश-पूजा करने के बाद ही मां भवानी महिषासुर का संहार करने में सफल हुई। गणेशजी की अवहेलना करके उनके माता-पिता भी अपना लक्ष्य पूर्ण करने में असमर्थ हो गए थे। वस्तुत: देवताओं ने गणेश जी को अपना अधिपति बनाकर उन्हें यह अधिकार दिया है कि जो व्यक्ति उनसे विमुख होकर किसी कार्य का प्रारंभ करेगा, उसे बाधाओं का सामना करना पड़ेगा।
आदिदेव हैं गणपति
पुराणों के अनुसार भगवान गणेश का पूजन करने से समस्त देवी-देवताओं की पूजा का प्रतिफल प्राप्त हो जाता है। श्रुतियों में गणेशजी को प्रणव का साक्षात स्वरूप बताया गया है। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आदिदेव गणेश ही ब्रह्माजी के रूप में सृष्टि का सृजन करते हैं, विष्णु रूप में संसार का पालन करते हैं और रुद्र (महेश) के रूप संहार करते हैं। गणेशजी के एकदंत गजमुख को ध्यान से देखने पर प्रणव (ॐ) ही दृष्टिगोचर होता है। भगवान गणेश की पूजा-पद्धति अत्यंत सरल है।
उनकी पूजन सामग्री में मोदक, सिंदूर और हरी दूब को अवश्य शामिल किया जाता है। यदि गणेश जी की मूर्ति उपलब्ध न हो तो एक सुपारी पर मौली (लाल रंग का कचा धागा) बांधकर उनका प्रतिरूप बनाया जाता है। उनकी पूजा में स्वस्तिक की आकृति बनाई जाती है, जो गणेश परिवार का प्रतीक है, जिसमें उनकी पत्नियां ऋद्धि-सिद्धि तथा पुत्र शुभ-लाभ शामिल हैं।
महाराष्ट्र में गणेशोत्सव
गणेश पुराण के मतानुसार भगवान गणेश शिव-पार्वती के यहां पुत्र रूप में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी के दूसरे पहर में प्रकट हुए थे। इसीलिए महाराष्ट्र में चतुर्थी से चतुर्दशी तक गणेशोत्सव मनाए जाने का शुभारंभ हुआ। जिसे लोकमान्य तिलक के कारण सार्वजनिक उत्सव का स्वरूप प्राप्त हुआ। अब यह गणेशोत्सव महाराष्ट्र की सीमाएं लांघकर संपूर्ण भारतवर्ष में लोकप्रिय हो गया है। गणेशजी के आविर्भाव की तिथि होने के कारण चतुर्थी का विशेष आध्यात्मिक महत्व है। शुक्लपक्ष की चतुर्थी को वैनायकी चतुर्थी कहते हैं। इस तिथि में व्रत करते हुए सिद्धि विनायक की पूजा करने से मनोकामना पूर्ण होती है। कृष्ण पक्ष की चंद्रोदय चतुर्थी को सकंष्टी चतुर्थी कहते हैं। संकष्टी चतुर्थी का विधिवत व्रत करने से समस्त संकट दूर होते हैं तथा असंभव भी संभव हो जाता है। सही मायने में गणेश जी सबके लिए प्रथम पूज्य हैं। इनकी शरण में आकर समस्त विघ्न-बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है।
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