जातिवाद पर भारी विकास की ललक

चुनाव में अंतिम आहुति पड़ने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि जनता भ्रम व असमंजस की स्थिति से बाहर आकर विकास चाहती है। यह विकास की ही ललक है कि चुनाव पर हावी जातिवाद पूरी तरह टूटे न टूटे कम से कम परिवार जरूर टूटा है। जेनरेशन की सोच में आए बदलाव ने जाति से ऊपर मुद्दों के आधार पर वोटिंग की और भविष्य के लिए स्थायी सरकार चाही है। संभवत: वोटरों और खासकर युवा वोटरों को यह कसक है कि भारत की आयु के ही देश जब नई ऊंचाइयां छू रहे हैं तो भारत क्यों हर मानक पर पिछड़ता जा रहा है।

नौ चरणों के मतदान के बाद कुल मत फीसद 68 तक पहुंच गया है। पिछले चुनाव के मुकाबले लगभग दस फीसद की छलांग के लिए यूं तो चुनाव आयोग भी प्रशंसा का पात्र है। उसके कई कदमों के कारण लगातार मतदान फीसद बढ़ता जा रहा है। लेकिन, लोकसभा चुनाव में दिखी बढ़त का एक खास अर्थ है और कुछ खास कारण भी। अंतिम नतीजे तो 16 मई को आएंगे, लेकिन एक्जिट पोल के अनुसार सत्ता में आती दिखी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, विकास जैसे मुद्दे छाए रहे। जबकि, कांग्रेस समेत अन्य दलों के चुनाव प्रचार में मुख्यत: सांप्रदायिकता व धर्मनिरपेक्षता का सवाल उठाया गया। दरअसल, चुनाव को एंटी मोदी के मुद्दे पर भी लड़ने की कोशिश हुई। लेकिन, जनता ने शायद तय कर लिया था कि वह विकास के ही मुद्दे पर वोट करेगी। उसे इसका भी अहसास था कि मजबूत सरकार के लिए स्थायी सरकार जरूरी है, ताकि बेबाकी से ठोस कदम उठाया जा सके। ऐसे निर्णय लिए जा सकें जो व्यक्तिगत तौर पर सुखद हों व देश के लिए मजबूत। चुनाव बाद के रुझान ने इसका संकेत दे दिया है। जो रुझान है, वह पूरी तरह सही साबित हुआ तो लगभग दो दशक बाद कोई चुनाव पूर्व गठबंधन देश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाएगा। इसका श्रेय जाहिर तौर पर युवा व महिला मतदाताओं और सोशल मीडिया को जाएगा।

भाजपा के लिए भी यह ऐतिहासिक क्षण होगा व पार्टी में सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे मोदी के कद व रुतबे पर जनता की भी मुहर लगेगी। एक तरह से अक्सर खींचतान और विवादों में रहने वाली भाजपा में भी शायद सबकुछ स्थिर होगा। कांग्रेस को अपनी रणनीति पर नए सिरे से विचार करना पड़ेगा। पिछले कुछ दिनों में नेतृत्व को लेकर चलती रही अटकलें फिर से जोर पकड़ें तो आश्चर्य नहीं। जनता एक सबक और दे सकती है। तीसरे मोर्चे की विफल सरकार देख चुकी जनता को शायद केंद्र में ऐसी सरकार नहीं चाहिए, जिसमें शीर्ष स्तर पर नेतृत्व को लेकर ही खींचतान हो। यही कारण है कि विभिन्न राज्यों में बड़ी संख्या के साथ सरकार में काबिज दलों को चुनाव बाद रुझान ने हाशिए पर रखा है। शायद उन्हें अब दिल्ली की राजनीति में अपनी सोच राष्ट्रीय बनानी होगी।

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