साफ छवि वाले ही बनें मंत्री: सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्रियों को अपना मंत्रिमंडल चुनने का हक है और उन्हें इस बारे में कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। लेकिन, शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही उन्हें संवैधानिक दायित्वों का अहसास कराते हुए भ्रष्टाचार और गंभीर अपराधों के आरोपियों को मंत्री न बनाने की नसीहत भी दी है। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एक जनहित याचिका का निपटारा करते हुए यह फैसला दिया।
संविधान पीठ ने मनोज नरूला की जनहित याचिका पर तीन अलग-अलग लेकिन एक-दूसरे से सहमति रखने वाले फैसले दिए। पांचों न्यायाधीश इस बात पर एक मत थे कि मंत्रिमंडल चुनना प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है और उन्हें इस बारे में कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। दागियों को मंत्रिमंडल से दूर रखने की नसीहत भी पांचों न्यायाधीशों की है।
सुप्रीम कोर्ट का दागी नेताओं से जुड़ा दो साल के भीतर यह तीसरा फैसला है। पहले फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नेताओं और महत्वपूर्ण व्यक्तियों के खिलाफ लंबित मुकदमे एक साल के भीतर निपटाए जाएं। दूसरे फैसले में, कानून के उस प्रावधान को निरस्त किया था जो दोषी ठहराए गए सांसदों-विधायकों को अपील लंबित रहने के दौरान विधायिका का सदस्य बनाए रखता था। शीर्ष अदालत के इस फैसले के बाद ही राजद प्रमुख लालू यादव की सदस्यता चली गई थी। अब यह तीसरा फैसला है जिसमें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को साफ छवि वाले लोगों को ही मंत्री बनाने की नसीहत दी गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रिपरिषद का चयन प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के विवेकाधिकार पर छोड़ते हुए कहा है कि संविधान प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्रियों में गहरा विश्वास रखता है और उनसे उम्मीद करता है कि वे जिम्मेदारी के साथ संवैधानिक आचरण के अनुरूप व्यवहार करेंगे। कोर्ट ने यह भी कहा कि भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है और संविधान के संरक्षक की हैसियत से प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को मंत्री नहीं चुनेंगे। लेकिन, स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 75(1) की व्याख्या करते समय उसमें कोई नई अयोग्यता नहीं जोड़ी जा सकती। जब कानून में गंभीर अपराधों में या भ्रष्टाचार में अभियोग तय होने पर किसी को चुनाव लड़ने के अयोग्य नहीं माना गया है तो फिर अनुच्छेद 75(1)(केंद्रीय मंत्रिमंडल का चयन) या 164(1) (राज्य मंत्रिमंडल का चयन) के मामले में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के अधिकारों की व्याख्या करते हुए उसे अयोग्यता के तौर पर नहीं शामिल किया जा सकता।
पीठ ने कहा, जब संविधान बना था तब सिर्फ दोषसिद्धि पर बहस हुई थी लेकिन समय के साथ राजनीतिक व अन्य क्षेत्रों के परिदृश्य बदल गए हैं। कई बार कोर्ट राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण और भ्रष्टाचार पर चिंता जता चुका है। लोकतंत्र में लोग आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति से शासित नहीं होना चाहते। इसका ध्यान सरकार के मुखिया को रखना चाहिए।
क्या था मामला:
मनोज नरूला ने 2004 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर कैबिनेट से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले मंत्रियों को हटाने की मांग की थी। जिसे उस समय कोर्ट ने खारिज कर दिया था। लेकिन, नरूला ने याचिका खारिज करने के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की जिसे स्वीकार करते हुए कोर्ट ने मामले पर विचार शुरू किया। 2006 में मामले को महत्वपूर्ण मानते हुए संविधान पीठ को विचार के लिए भेज दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां:
”राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए अभिशाप है। इससे बहुत ही सावधानी और समझदारी से निबटने की जरूरत है।’
”भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है। संविधान के संरक्षक की हैसियत से प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों, जिन पर गंभीर अपराधों में अदालत से अभियोग तय हो चुके हैं या भ्रष्टाचार में आरोपी हैं, को मंत्री नहीं चुनेंगे।”
”अपराध और भ्रष्टाचार साथ-साथ चलते हैं। भ्रष्टाचार विधि के शासन के बुनियादी सिद्धांतों का हनन करता है। 26 जनवरी, 1950 यानी जिस दिन से संविधान लागू हुआ, राष्ट्र उच्च पदों पर भ्रष्टाचार का मूकदर्शक बना हुआ है।’
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