नोटबंदी की बलिवेदी और कितने लोगों की भेंट लेगी?

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देश में काले धन के लिए चलाए जा रहे नोटबंदी अभियान की बलिवेदी में सौ लोगों की भेंट चढ़ गई। मौजूदा हालात में जिस तरह बैंकों में कतारें नजर आ रही हैं, उससे जाहिर है कि आगामी महीनों में भी हालात बेहतर होने वाले नहीं हैं। मृतकों में उनकी संख्या शामिल नहीं हैं, जिनकी खबर नहीं बन सकी। ऐसे लोगों की मौत का आंकड़ा कहीं अधिक हो सकता है। ज्यादातर लोगों की मौत बैंकों से धन नहीं मिलने के सदमे और बीमारी के लिए धन का पर्याप्त इंतजाम नहीं करने से हुई हैं। कुछ लोगों ने बेटी के विवाह में व्यवधान या दूसरे कारणों से आत्महत्या कर ली। मौत के आगोश में ज्यादातर आम लोग ही आए। नोटबंदी से मरने वालों के मामले में कुतर्कों की वही गली तलाशी गई है जोकि कुपोषण और भूख से होने वाली मौतों के मामलों में तलाशी जाती रही है। ऐसी मौतों की कोई भी राजनीतिक दल जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता। इसके विपरीत जिस दल की भी सरकार राज्य या केंद्र में सत्ता में होती है, वह यही दलील देतीा है कि मौत बीमारी से हुई है ना कि कुपोषण या भूख से। नोटबंदी की चपेट में आकर जान गंवाने वालों के लिए भी इसी तरह के कुतर्क गढ़े जा रहे हैं। नोटबंदी में आम आदमी बेशक जान गंवाए या परेशान हो पर इससे नेता, अफसर, धनपशु और माफियाओं पर फर्क नहीं पड़ा। इनको बैंकों और एटीएम मशीनों की कतार में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार नहीं करना पड़ा। इनमें से किसी को घर−परिवार और रोजगार चलाने के लिए मौत को गले नहीं लगाना पड़ा। इनके काले धन का असर पहले भी आम लोगों पर पड़ रहा था और उसके खात्मे का परिणाम भी आम लोग ही भुगत रहे हैं। जबकि काले धन का अभियान इन्हीं को केंद्र में रखकर चलाया गया था। इनका धन बेशक चला गया हो पर जीवनशैली में कोई खास अंतर नहीं आया। चंद लोगों के गैरकानूनी धंधों की सजा पूरे देश को मिल रही है जबकि उन्होंने कोई कानून हाथ में लिया ही नहीं।
क्या यह माना जाए कि काला धन छिपाने वालों पर कार्रवाई करना इतना मुश्किल काम था कि सरकार को नोटबंदी का अभियान चलाने को विवश होना पड़ा। इससे सैंकड़ों परिवार उजड़ गए। अभी भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लोगों को कुव्यवस्था का शिकार होकर जान नहीं देनी पड़ेगी। केंद्र सरकार और भाजपा देश में काले धन की मौजूदगी के लिए कांग्रेस की नीतियों को जिम्मेदार ठहराती रही है। फिर सवाल उठता है कि इस गैरजिम्मेदारी की सजा कांग्रेस सरकार को क्यों नहीं दी जा रही। क्यों आम लोग इसकी चपेट में आ रहे हैं? करे कोई और भरे कोई का यह सिलसिला क्या आरोप−प्रत्यारापों तक ही सीमित रहेगा। क्या यह माना जाए कि सभी दलों के स्वार्थ एकसमान हैं। क्या आरोप सिर्फ सत्ता में आने के लिए ही लगाए जाते हैं? यदि कांग्रेस के कारण ही आज देश में काले धन की स्थिति बनी है तो केंद्र सरकार को उसके खिलाफ कार्रवाई करने में क्या भय है? कांग्रेस के कर्मों की सजा आम लोग क्यों भुगत रहे हैं? कांग्रेस के खिलाफ सीधे कार्रवाई करने से सरकार क्यों कतरा रही है?
केंद्र सरकार के कालेधन के खात्मे के लिए पांच सौ और एक हजार रूपए के नोटों के बंद करने के निर्णय को राष्ट्रहित की संज्ञा दी गई। इसके समर्थकों की दलील रही कि सीमा की सुरक्षा के लिए जवान जान दे सकते हैं तो थोड़ी−बहुत तकलीफ देशहित में आम लोग भी उठा सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम लोगों ने मौजूदा और पूववर्ती सरकारों के देशहित में लिए गए निर्णयों में हमेशा साथ दिया है। यदि बैंकों के इंतजाम पूरी तरह विफल रहे और एटीएम मशीनें जवाब दे जाएं तो इसमें आम लोगों का क्या कसूर है? ऐसे में आगे भी लोगों के साथ हादसे और किसी तरह की अनहोनी से इंकार नहीं किया जा सकता। सवाल उठता है कि जिन लोगों की मौत नोटबंदी के चलते हुई है, क्या सरकार उनके परिवारों की सुध लेगी। सीमा के जवानों से तुलना करने वाले क्या पीड़ित परिवारों की मदद के लिए आगे आएंगे? देश की इस आहूति में उनकी जान क्या व्यर्थ चली जाएगी। क्यों नहीं सरकार ऐसे लोगों की मौत पर जांच कमेटी बिठा कर मुआवजा या अन्य रियायतें तय करती? देश के लिए कतारों में खड़े होकर जान देने वालों को जवानों जितना नहीं तो थोड़ा−बहुत सार्वजनिक सम्मान तो दिया ही जा सकता है। क्या देशभक्ति दिखाने के लिए आम लोगों की इतनी संख्या में मौतें पर्याप्त नहीं है? सवाल यह भी है कि अभी और कितने लोगों को व्यवस्था की इस नाकामी के चलते जान से हाथ धोना पड़ेगा? मौजूदा हालात से साफ जाहिर है कि बैंकों ने व्यवस्था संभालने से हाथ खड़े कर दिए हैं। आम लोगों को सिर्फ आश्वासनों के झूले पर झुलाया जा रहा है। लोगों में लगातार भय व्याप्त होता जा रहा है। अपने ही रूपयों के लिए कतारों की संख्या में कमी नहीं आना इंगित करता है कि यह कुव्यवस्था लंबी अवधि तक चलने वाली है। इसके ओर दुष्परिणाम आने अभी बाकी हैं। अभी नोटबंदी को लागू हुए एक महीना भी नहीं बीता है। सरकारी स्तर पर आम लोगों को दिन−प्रतिदिन होने वाली तकलीफों को कम करने के प्रयासों के दावे खोखले साबित हुए हैं। लोगों में व्याप्त भय−चिंता कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। ऐसी अराजकता का दौर कब तक चलेगा। कब तक लोग बैंकों की दहलीज पर दम तोड़ते रहेंगे। इसकी पुख्ता जानकारी और आश्वासन किसी भी स्तर पर नहीं मिल रहे हैं। केंद्र सरकार हर रोज नए−नए कायदे−कानून जारी कर रही है। इससे जाहिर है कि सरकार ने नोटबंदी से पड़ने वाले प्रभावों की रोकथाम के लिए पर्याप्त इंतजाम नहीं किए। नौकरशाहों ने सरकार को गुमराह कर दिया। इसका आकलन ही नहीं किया गया कि नौबत लोगों के मरने तक भी आ सकती है। क्या इसे सरकारी मशीनरी की विफलता नहीं माना जाना चाहिए?
– योगेन्द्र योगी

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