सभी यज्ञों के पुरोहित माने जाते हैं अग्निदेव

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अग्नि देवता यज्ञ के प्रधान अंग हैं। ये सर्वत्र प्रकाश करने वाले एवं सभी पुरुषार्थों को प्रदान करने वाले हैं। सभी रत्न अग्नि से उत्पन्न होते हैं और सभी रत्नों को यही धारण करते हैं। वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और उसमें प्रथम शब्द अग्नि ही होता है। अतः यह कहा जा सकता है कि विश्व साहित्य का प्रथम शब्द अग्नि ही है। ऐतरेय आदि ब्राह्मण ग्रंथों में यह बार−बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है। आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे आगे चलते हैं। युद्ध में सेनापति का काम करते हैं। इन्हीं को आगे कर युद्ध करके देवताओं ने असुरों को परास्त किया था।
पुराणों के अनुसार इनकी पत्नी स्वाहा हैं। ये सब देवताओं के मुख हैं और इनमें जो आहुति दी जाती है, वह इन्हीं के द्वारा देवताओं तक पहुंचती है। केवल ऋग्वेद में अग्नि के दो सौ सूक्त प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद में भी इनकी स्तुतियां प्राप्त होती हैं। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्नि देवता की स्तुति करता हूं जो सभी यज्ञों के पुरोहित कहे गये हैं। पुरोहित राजा का सर्वप्रथम आचार्य होता है और वह उसके समस्त अभीष्ट को सिद्ध करता है। उसी प्रकार अग्निदेव भी यजमान की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं। अग्निदेव की सात जिव्हाएं बतायी गयी हैं। उन जिव्हाओं के नाम काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णी, स्फुलिंगी तथा विश्वरुचि हैं। पुराणों के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए। इनके पुत्र पौत्रों की संख्या उनचास है। भगवान कार्तिकेय को अग्नि देवता का पुत्र माना गया है। स्वारोचिष नामक द्वितीय मनु भी इनके ही पुत्र कहे गये हैं। अग्निदेव अष्ट लोकपालों तथा दस दिक्पालों में द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं। ये आग्नेय कोण के अधिपति हैं। अग्नि नामक प्रसिद्ध पुराण के ये ही वक्ता हैं। प्रभास क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर इनका मुख्य तीर्थ है। इन्हीं के समीप भगवान कार्तिकेय, श्राद्धदेव तथा गौओं के भी तीर्थ हैं।
अग्नि देव की कृपा के पुराणों में अनेक दृष्टान्त प्राप्त होते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं। महर्षि वेद के शिष्य उत्तंक ने अपनी शिक्षा पूर्ण होने पर आचार्य दम्पति से गुरु दक्षिणा मांगने का निवेदन किया। गुरु पत्नी ने उनसे महाराज पौष्य की पत्नी का कु.डल मांगा। उत्तंक ने महाराज के पास पहुंचकर उनकी आज्ञा से महारानी का कुण्डल प्राप्त किया। रानी ने कु.डल देकर उन्हें सतर्क किया कि आप इन कु.डलों को सावधानी से ले जाइयेगा नहीं तो तक्षकनाग कु.डल आपसे छीन लेगा। मार्ग में जब उत्तंक एक जलाशय के किनारे कुण्डलों को रखकर सन्ध्या करने लगे तो तक्षक कु.डलों को लेकर पाताल में चला गया। अग्नि देव की कृपा से ही उत्तंक दुबारा कु.डल प्राप्त करके गुरु पत्नी को प्रदान कर पाये थे। अग्नि देव ने ही अपने ब्रम्हचारी भक्त उपकोशल को ब्रम्ह विद्या का उपदेश दिया था। अग्नि की प्रार्थना और उपासना से यजमान धन, धान्य, पशु आदि समृद्धि प्राप्त करता है। उसकी शक्ति, प्रतिष्ठा एवं परिवार आदि की वृद्धि होती है। अग्नि देव का बीजमन्त्र ‘रं’ तथा मुख्य मंत्र ‘रं वहिन्चैतन्याय नमः’ है।

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