तप और दान का महत्व
भगवद गीता तप और दान को भी सत्व, राजस और तामस इन तीन गुणों के अनुरूप, तीन प्रकार में श्रेणीबद्ध करती है। गुरु, देवता, बड़ों और साधु-संतों के प्रति भक्तिभाव, स्वच्छता, स्पष्टवादिता, ब्रह्मचर्य और अहिंसाय ये सारे शरीर के तप के तरीके होते हैं। मीठा व्यवहार, सत्यवादिता, वेदों, उपनिषदों आदि के अभ्यास और ईश्वर का नाम जपते रहना, ये सारे वाणी के तप के तरीके होते हैं। प्रसन्नता, सौम्यता, ईश्वर चिंतन, इंद्रियों पर पूरा संयम और भाव की शुद्धता, ये सारे मन के तप के तरीके होते हैं। जब मन, शरीर और वाणी का तिगुना तप पूरी श्रद्धा से बिना किसी फल की अपेक्षा से किया जाता है, तो वह तप सात्विक होता है। जो तप नाम, प्रसिद्धि, लोकप्रियता या किसी भौतिक फल की अपेक्षा से किया जाता है, वह अनिश्चित व अस्थायी फल देता है और वह तप राजसिक होता है। जो तप मूर्खता एवं हठ से किया जाता है, जिसके कारण स्वयं और दूसरों की हानि होती है, वह तप तामसिक होता है। काल जादू और दुष्ट साधनाओं के अभ्यास इस अंतिम श्रेणी में आते हैं और व्यक्ति को निसंदेह नर्क की और लेकर जाते हैं। विस्मयकारक बात यह है कि आज के समय में सात्विक तप करनेवाले लोग बहुत अल्पसंख्या में हैं। ऐसे आश्रमों में शुल्क की अपेक्षा नहीं की जाती, साधना का हेतु केवल आत्मिक उत्थान होता है, गुरु साधकों को उनके भले के लिए, उनकी कमियाँ हर कदम पर बताते हैं और उन्हें उन कमियों से ऊपर उठने के लिए सही मार्ग दिखाते हैं। देवी-देवताओं के दर्शन और सूक्ष्म जगत के अनुभव ऐसी पाठशालाओं तक ही सीमित होते हैं। बहुसंख्य पाठशालाएँ लोगों से नश्वर भौतिक फलों के झूठे वादे करते हैं और उनसे द्रव्य और सहायता मिलने की लालसा से उन पर तारीफों की वर्षा करते रहते हैं। इन पाठशालाओं में लोगों को अस्थायी सुखों के अनुभव तो मिल जाते हैं परंतु, उन्हें अपनी जेबें खाली करने के बावजूद अंतिम सत्य के दर्शन नहीं होते, और वे लोग पीड़ादायी जन्म-मृत्यु के फेरे में अटके रह जाते हैं। तप की तरह ही दान के भी तीन प्रकार होते हैं जो उनके अनुकूल परिणाम देते हैं। जो दान कर्तव्य के रूप में , बिना किसी फल की अपेक्षा के, योग्य समय और योग्य स्थान पर योग्यतानुसार जीव को दिया जाता है, उसे सात्विक दान कहा जाता है। जो दान किसी सहायता, सेवा या इनाम की अपेक्षा से किया जाता है उसे राजसिक दान कहते हैं और जो दान किसी दुष्ट कामना से बिना किसी लिहाज के, किसी भी समय और किसी भी स्थान पर अयोग्य जीवों को दिया जाता है, उसे तामसिक दान कहते हैं। दान का स्वरुप ऐसा होना चाहिए कि बाएँ हाथ को पता न चले कि दाहिने हाथ ने क्या दिया है। वैरागी वृत्ति से, गुरु वाक्य अनुसार भटकने वाले और वन्य प्राणियों की सेवा, गरीब बच्चों को शिक्षा देना और गरीबों को खाना खिलाना, ये दान के कुछ उदहारण हैं जिनके कारण आत्मिक उन्नति के पथ पर व्यक्ति और तेजी से आगे बढ़ता है। स्वयं के मित्रों व रिश्तेदारों और समाज के प्रति नाम, प्रसिद्धि, लोकप्रियता, प्रशंसा, ख्याति और सहायता बंटोरने के लिए किये गए दानों के परिणाम सीमित व नश्वर होते हैं।
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