सियासत-साहित्य दोनों में दखल रखते हैं हृदय नारायण दीक्षित

उत्तर प्रदेश विधानसभा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित विचारक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। प्रायः इस स्तर के विद्वान जमीनी राजनीति में उतरने से बचते हैं। अध्ययन, लेखन और सक्रिय राजनीति के बीच समन्वय बनाना आसान नहीं होता। दोनों की प्रकृति अलग है। दोनों के लिए अलग−अलग भरपूर समय की अवश्यकता होती है। यह माना जाता है कि एक पर समय लगाओ तो दूसरे की उपेक्षा होती है। हृदय नारायण दीक्षित का लेखन सामान्य नहीं होता। आलोचना की पद्धति को उन्होंने अपनाया है। इसमें गहन अध्ययन व भौतिक चिन्तन की आवश्यकता होती है। तभी संबंधित विषय की आलोचानात्मक समीक्षा हो सकती है। शायद यही कारण था कि उनके छोटे व अति साधारण घर में बैठने के लिए कम और किताबों की अलमारियों के लिए जगह ज्यादा थी। कहा जा सकता है कि वह राजनीति छोड़ देते तो समाज सेवा के क्षेत्र का नुकसान होता, लेखन छोड़ देते तो साहित्य जगत का नुकसान होता। उन्होंने दोनो क्षेत्रों में मिसाल कायम की। उनकी राजनीति और उनके लेखन से खासतौर पर नई पीढ़ी को प्रेरणा लेनी चाहिए। एक व्यक्तित्व में प्रायः दो विपरीत ध्रुव इस तरह समाहित नहीं होते। अक्सर उनके साथ वेद आदि प्राचीन ग्रन्थों पर सारगर्भित चर्चा होती थी, तभी किसी का फोन आता था, फलां थाने का दरोगा परेशान कर रहा है। दीक्षित जी उस थाने को फोन मिलाते। फिर जिस अन्दाज में बात करते थे, लगता ही नहीं था यह व्यक्ति अभी वेद पर धारा प्रवाह बोल रहा था। दरोगा या किसी अन्य अधिकारी से बातचीत के समय रूप बदल जाता था। तब उनके मन−मष्तिस्क में वह वंचित, कमजोर गरीब होता था, जो अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा था।

जब तक उसे न्याय ना दिला लें, वह बेचैन रहते थे। दोनों भूमिकाओं में उन्होंने अपनी अधिकतम क्षमता से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। गीता का यही संदेश वह दोहराते हैं। कर्म कौशल पर विश्वास रखते हैं। गीता पर उत्कृष्ठ पुस्तक का लेखन भी उन्होंने किया है। कर्तव्यों के प्रति लापरवाह अधिकारियों से संवाद में भले ही शब्द ज्यादा हो जाये, वाक्य बड़े हो जाएं लेकिन लेखन में उन्होंने शब्दों का अनुशासन सदैव बनाए रखा। उनके छोटे वाक्य प्रभावशाली होते हैं। राजनेता और उच्चकोटि के लेखन की यह छवि उन्होंने स्वयं अपनी साधना से बनाई है। बहुत गरीबी देखी। बचपन में अपने पिता को परिवार के जीवन यापन हेतु भटकते देखा। बालक हृदय नारायण उनका हांथ बटाते थे। भविष्य अनिश्चित था। उस स्थिति में बहुत अच्छे भविष्य की कल्पना करना भी संभव नहीं होता। किताब खरीदने तक के पैसे जुटाना मुश्किल था। संघर्षों से पीछे नहीं हटे। अर्थशास्त्र में एम.ए. किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए तो राष्ट्रवादव व निःस्वार्थ समाजसेवा की प्रेरणा मिली। आर्थिक स्थिति कमजोर थी। जनसहयोग मिला, तो पुरवा विधानसभा क्षेत्र से चनाव लड़ गए। गरीबों, वंचितों के लिए संघर्ष करने का लाभ मिला। वह चुनाव जीत गए। वह चुनाव पुरवा के गरीबों, वंचितों के समर्थन से जीते थे। अन्यथा वह जिस अतिसाधारण परिवार से थे, उसमें कोई विधानसभा पहुंचने की कल्पना भी नहीं कर सकता था। विधायक बनने के बाद उनके सामने दो विकल्प थे। एक यह कि अपने घर−परिवार की आर्थिक दशा सुधार लें, दूसरा यह कि उन गरीबों के प्रति न्याय करें, जिन्होंने उनको यहां तक पहुंचाया है। पहले विकल्प पर उन्होंने विचार तक नहीं किया। इससे संबंधित एक दिलचस्प किस्सा वह सुनाते हैं। विधायक बनने के बाद वह अपने लउआ स्थित घर पहुंचे थे। अंधेरा हो रहा था। कुछ प्रशासनिक अधिकारी उनसे मिलने पहुंचे। कच्चा मकान, टूटी कुर्सियां, किसी तरह उनको बैठाया गया। लालटेन का इंतजाम किया गया। तब एक−दूसरे का चेहरा दिखाई दिया। पड़ोसियों के यहां से कप−प्लेट लेकर चाय का इंतजाम हुआ। मुलाकात के बाद अधिकारी चले गए। हृदय नारायण ने अपने पिता से कहा कि वह ईमानदारी से जनसेवा करना चाहते हैं। घर को महल बना देने, कोट, परमिट, ठेकेदारी, पेट्रोल पम्प आदि की उनकी इच्छा नहीं है। उनके पिता ने सहमति प्रदान की। कर्तव्यपथ पर आगे बढ़ने का आशीर्वाद दिया। इसके बाद जो साधारण खेती थी, उसे देखने व परिवार के जीवन यापन की जिम्मेदारी उनके पिता ने संभाली। हृदय नारायण ने निस्वार्थ जनसेवा का जो संकल्प लिया, उससे कभी विचलित नहीं हुए, कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज भी वह महंगे फल नहीं खाते। कहते हैं कि बचपन में कभी अंगूर या ड्राईफ्रूट देखने को नहीं मिले। इसलिए आज वह मानते हैं कि उनको मंहगे फल, मेवा खाने का अधिकार नहीं है। सूखी सब्जी में पानी मिलाकर रसेदार बना लेना उन्हें आज भी पसन्द है।

विधानसभा में निर्धारित समय पर पहुंचने के अपने नियम का वह कड़ाई से पालन करते हैं। कार्य में कोई अवकाश नहीं लेते। उन्होंने ब्रिटिश सहित अनेक देशों के संविधान व शासन प्रणाली का गहन अध्ययन किया। इसी के साथ जमीनी−राजनीति में भी सक्रियता बनाए रखी। दूसरी ओर अध्ययन व लेखन के प्रति भी वैसी ही सक्रियता व ईमानदारी पर अमल किया। यही कारण है कि विधानसभा अध्यक्ष पद हेतु उनके नाम पर ऐसी सहमति बनी। सभी पार्टियों के सदस्यों ने उनकी एक स्वर में प्रशंसा की। राजनीति में इस प्रकार के सुयोग्य व्यक्तियों की संख्या बढ़नी चाहिए। तभी विश्वास के संकट को समाप्त किया जा सकेगा।

– डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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