प्रधानमंत्री जी, हम दे रहे हैं आपको 30 रुपये, एक दिन गुजारकर दिखाएं
पटना । सुबह की धूप माथे पर चढ़ें इसके पहले गांव हो या शहर, गरीबों की भूख से जद्दोजहद शुरू हो जाती है। शहर की तंग गलियों में दड़बेनुमा मकानों की कची-पक्की दीवारों के पीछे चूल्हों से धुआं नहीं आंख का आंसू उड़ता है। ऐसे धुंधले माहौल में 27 रुपये वाला ही गरीब है, 28 रुपये वाला नहीं..का तर्क सुनकर झल्लाया-सा जवाब मिलता है, हम उन पर 30 रुपये खर्च करेंगे, क्या प्रधानमंत्री जी हमारे साथ एक दिन बिताएंगे?
यह जवाब उन आंकड़ेबाजों के लिए भी है, जिन्होंने गरीबी की नई परिभाषा गढ़ी है। आइए सुनते हैं इस परिभाषा की वजह से रातोंरात गरीब से गरीब नहीं की श्रेणी में आए अपने शहर-गांव के कुछ लोगों की..
पटना [सुनील राज]। कौशल्या देवी की सुबह जब होती है उस वक्त अंधेरा ही होता है। मन मार पैरों में टूटी चप्पल डाल वह निकल पड़ती हैं चार घरों का काम निपटाने। चौका-बर्तन कर लौटती हैं तो साथ होती हैं रात की बची चंद रोटियां। जो उनकी मालकिनों से उन्हें मिली होती हैं। ये रोटियां पांच लोगों के परिवार के सुबह की भूख मिटाती हैं। 133 रुपये का सवाल कौशल्या के लिए भडक़ाऊ भाषण की तरह है। पूछ बैठी, एक वक्त का खाना बनाने में सौ रुपये खर्च हो जाते हैं। सुबह बचों को कलेवा न दें, रात को भूखे रह जाएं, तो शायद 28 रुपये में दिन काटा जा सकता है। कौशल्या का पेट सुबह किसी और की दी रोटियों पर चलता है तो शाम को किसी और की। वे जानना चाहती हैं कि कब उन्हें अपनी दिनभर की मेहनत की एवज में दो वक्त की भरपेट रोटी मिल सकेगी?
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