ना वामदल का दम रहा, ना किसी मोर्चे के चर्चे
नई दिल्ली , क्या नरेंद्र मोदी की शानदार जीत के शोर में उन 200 सांसदों की अहमियत भुलाई जा रही है, जो उनके खिलाफ लड़कर और जीतकर संसद पहुंचे हैं? गौर से देखें तो इनकी संख्या भले ही बड़ी हो, लेकिन कांग्रेस भी अब तक की सबसे कम सीटों के साथ प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने के संकट से जूझ रही है। लगभग 150 सीटों वाले गैर-राजग और गैर-संप्रग दल भी इतने खानों में बंटे हैं कि यहां ना तो वामदलों का दबाव होगा और ना ही किसी मोर्चे के चर्चे। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकसभा के भीतर नरेंद्र मोदी सरकार के लिए विपक्ष की चुनौती कैसी होगी।
तमिलनाडु में जयललिता की अन्नाद्रमुक जरूर सीटों की संख्या के लिहाज से राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी है, लेकिन उनकी फितरत को जरा भी समझने वाले जानते हैं कि वे मोदी सरकार से टकराव के बजाय, उनके साथ मिलकर ही चलेंगी। इसी तरह चौथे नंबर पर रहीं ममता बनर्जी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के साथ किसी कीमत पर खड़ी नहीं दिखना चाहेंगी। महज एक दशक पहले राष्ट्रीय फलक पर बड़ी ताकत और एक गंभीर विकल्प बनती दिख रही वामपंथी पार्टियां इस बार कहीं नहीं हैं। पिछले चुनाव में ये दल 60 से घटकर 24 पर पहुंचे थे, तो इस बार महज एक दर्जन के करीब सीटों पर सिमट गए हैं। सबसे लंबी वामपंथी सरकार का विश्व रिकॉर्ड बनाने वाले पश्चिम बंगाल में भी इस बार ये मुंह छुपाने की हालत में हैं।
वामपंथियों के दोनों प्रमुख साथी मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार भी उन्हीं की तरह मुंह की खा रहे हैं। 21 और 19 सीटों वाले ये दोनों ही दल इस बार पिछले चुनाव के मुकाबले एक चौथाई सीटों पर सिमट रहे हैं। उधर, बिहार में लालू प्रसाद की राजद को छोड़कर कांग्रेस की लगभग सभी सहयोगी पार्टियां भी उसी की तरह बेहद बुरी हालत में पहुंच गई हैं। उत्तर प्रदेश में रालोद का जहां सफाया हो गया है, वहीं महाराष्ट्र में राकांपा भी अब ऐसी स्थिति में नहीं रह गई है कि संसद में अपनी कोई मजबूत आवाज रख सके। अपने मुट्ठी भर सांसदों के साथ आम आदमी पार्टी (आप) को भी संसद में कोई बात रखने के लिए अपने नाटकीय अंदाज का ही सहारा लेना होगा।
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